॥ माटी खान लीला ॥
जारी........
माता द्वारे पर तब आईं। संग सखिन की शोभा छाई।
दोहा:-
पीनस का परदा उलटि, चटपट दीन्हेउ माय।
झुकि करके कर को पकड़ि, प्रिया को चलीं लिवाय॥
चौपाई:-
मध्य भवन में जाय बिठायो। देखि भवन बैकुण्ठ लजायो॥
दोहा:-
सब पुरवासिन ते कह्यो, हलधर हाँक सुनाय।
भोजन प्रेम ते कीजिये, सब जन तन मन लाय॥
हलधर से सबने कह्यो, इच्छा नहिं सुखदाय।
इतना कहि सब चलत भे, निज निज गृह हर्षाय।२५९।
चौपाई:-
यशुमति सब सखियन हर्षाई। लाय दीन पकवान मिठाई॥
सब ने हाथ जोरि शिर नाई। नेकौ इच्छा नहीं है माई॥
दोहा:-
अस कहि उठिठाढ़ी भईं, चलीं सबै हर्षाय।
अपने अपने भवन में, पहुँचि गईं फिर जाय॥
राधे नन्द के भवन में, रहीं रैन भरि जान।
होत प्रभात पिता भवन, को करि गईं पयान।२६२।
सोरठा:-
नित प्रति का यह हाल, तुम्हैं दीन बतलाय हम।
पुर नर नारि निहाल, दुख क पुर में नहीं तम॥
दोहा:-
वृज की लड़की निशि समय, रहैं पती के भवन।
जाँय सवेरे सब चली, मातु पिता के भवन॥
रीति पुरातन की तुम्हैं, दीन्हीं सत्य बताय।
या में जे संशय करैं, ते वृज पूछैं जाय॥
दुलरी की चोरी करी, प्रेम से कियो बिवाह।
सुर मुनि नर नारी सवै, तन मन ते उत्साह॥
हरि की लीला अकथ है, नाम मात्र कहि दीन।
पढ़िहै सुनिहै जौन कोइ तन मन ते ह्वै दीन॥
तिनको दरशन देंय हरि, सखा सखिन के संग।
शची कहैं बसु याम फिर, देखै नाना रंग।२६८।