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११० ॥ श्री हुलसी माता जी ॥

जारी........

छोरे नहि छोरैया।

सब के गृह निशि में जांय माई तुम्हरे कन्हाय निशि भर करते हंसाय

सोवै नहि देवैया।

दुपहर औ आधी रात सब के घर रोज जात होवै जैसे प्रभात

पता नहि लगैया।

कितने यह रूप धरैं घर घर में रोज फिरैं नैनन से नाहि टरैं

रहस के करैया।१०५।

घर घर में यही बात अचरज की कही जात बनिगे हरि सब के नात

प्रेम उर भरैया।

सासु ससुर पिता मात सब के तन मन जुड़ात ऊपर ते कहत बात

सत्य मानु मैया।

सब को हरि बश में कीन्ह इनके सब हैं अधीन ऐसे यह हैं प्रवीन

मानो सत्य मैया।

देखे बिन नहीं चैन असुवां अति बहत नैन बोलत अति मृदुल बैन

मोहक यदुरैया।

जहां मिलैं तहां धाय उर में सब लें लगाय लाज को बिहाय दीन

हम हूँ सब मैया।११०।

ग्वाल बाल सब बुलाय खेलन गये गेंद धाय यमुना के निकट जाय

खेल तहँ करैया।

श्री दामा गेंद दीन हंसि कै हरि हाथ लीन उनहीं के मार दीन

हटिगे नहिं लगैया।

यमुना जल गेंद जाय धारा बिच परयौ आय दूसर नहिं सकत जाय

लावै को कढ़ैया।

बोलैं श्री दामा आय दीजै हरि गेंद लाय दूसर नहिं लेहैं भाय

वही मोहिं सोहैया।

हरि को कर पकरि लेत आगे नहि जान देत सुन्दर मैदान

रेत ठाढ़े यदुरैया।११५।

बोलैं हरि सुनो भाय अब ही हम लावैं जाय काहे तुम मन दुखाय

देर नहिं लगैया।

छोड़ैं श्री दामा वाँह कूदैं हरि जल अथाह काली दह को प्रवाह

कौन रुकि सकैया।

पहुँचै गृह काली जाय नागिनि बहु दौरि आय निरखैं तन मन लोभाय

बोलैं कन फुसैया।

जाओ तुम भागि लाल जागै पति धरै गाल होवै फिरि तुरत काल

करि ले गटकैया।

सुनतै यह बैन कान्ह पहुँचै बायु समान मारैं एक लात तान

कहैं उठु लड़ैया।१२०।

काली उठि झुल झुलाय हरि के तन लपटि जाय मुख पर फन लाय

लाय मारै फुफकरैया।

तन को हरि दें बढ़ाय रोवै करि हाय हाय टूटि मम देंह जाय

प्राण जांय भैया।

नागिन सब दौरि आय बिनती करतीं सुनाय छोड़ौ अहि बात जाय

हम सब दुख पैया।

बिनती सुनि अन्तराय परगट ह्वै नाथैं आय फन पर ह्वै खड़े जाँय

तिरछे पग धरैया।

डोरी को गले डारे वंशी को अधर धारे इच्छा ते बसन सारे

परगट करि लेवैया।१२५।

शीश मोर मुकुट साजे कुंडल कानन में राजैं केशरि को तिलक छाजै

मस्तक चमकैया।

नाना रंग बसन अंग उठती तिन में तरंग निरखत अहि नारि तंग

जारी........