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१०८ ॥ श्री लुकमान हकीम जी ॥


पद:-

जा को शेष जपत शम्भु जपत ब्रह्मा जपत बेद जपत पावत नहिं

आदि अन्त।

प्रगट्यौ श्री अवध आय दशरथ ग्रह सुत कहाय मातु पितु हिय जुड़ाय

चूमै मुख गुदगुदाय निरखैं सुर मुनि बसन्त।

पुर के सब वृद्ध बाल निरखत छबि अति बिशाल गावत दै हाथ ताल

पावत मणि पट निहाल जय जय कहि कहि चलन्त।

राम भरथ एक रंग लक्षिमन शत्रुहन के रंग तन मन सब के उमंग

सागर में जिमि तरंग अंगन प्रति द्युति भरन्त।

आये फिर बृज मंझार कीन्ही लीला अपार देवकि बसुदेव कुमार

यशुदानन्द करि के प्यार पाल्यौ पलना झुलन्त।५।

कृष्ण नाम राम जी का बलिराम नाम लखन जी का मोर मुकुट शीश

नीका कानन कुण्डल जरी का पीत बसन तन लहन्त।

सखा सखी संघ सोहैं चाल चलत मन को मोहैं वांकी दोउ सुघर भोहैं

मुरली कर माहिं सोहैं नूपुर दोउ पग बजन्त।

ताल मूल उलटि देत नांचत हंसि गारि देत गावत फिरि ताल लेत राधे

गले बांह देत पल में बनते अनन्त।८।


शेर:-

मिलै जब नाम का नुस्खा धुनी एकतार जारी हो।

कृष्ण राधे कि छबि सन्मुख रहे हर दम निहारी हो।१।

नहीं कुछ खर्च नुसखे में गौर कर हम बिचारी हो।

नाम में प्रेम से सूरत लगा करके सम्हारी हो।२।

मिलै मुरशिद से यह ताली खुलै ताला करारी हो।

कैर कसरत खिलै गुलशन उड़ै खुशबू बहारी हो।३।