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३३ ॥ श्री अद्वैताचार्य्य जी कृत संकीर्तन ॥

जारी........

संकीर्तन तो बहुत हैं, थोड़ा दीन लिखाय।

तन मन प्रेम लगाय कै, करिये हरि दरसाय।२।


वार्तिक:-

श्री गौराङ्ग महाप्रभु ने ओंकार ही को महावाक्य कहा है। और तीन वेद प्रधान माना है। सामवेद ऋग्वेद और ययुर्वेद। ऊँ में पांच अक्षर हैं।

आ उ म। आ से सामवेद, उ से ऋग वेद और म से यजुर्वेद। इन्हीं तीन वेदों के अंश से अथर्वण वेद बना है। और चारों के अंश से आयुर्वेद हुआ है। ऊँ के ऊपर जो रेफ़ बिन्दु है वह निर्गुण नाम राम जानकी, कृष्ण राधा बिष्णु रमा का है और उसी में पालन, प्रलय, उत्पति, सब सुर मुनि, नर और सब जीवों का बास है। इस नाम को ब्रह्मा, शिव, शेष, लोमश इत्यादि सभी जपते हैं। विष्णु जी आप ही आप को जपते हैं। और जगत का पालन करते हैं। यह बात बहुत ही ऊँची हैं। अपने आप को तो जपना ही है। दूसरा कोई नहीं है। अपने स्वरूप को पहिचान कर स्वयं आप ही आप हो जाता है। परन्तु श्री गुरु द्वारा जानकर बोध होता है। नहीं तो कदापि समझ में नहीं आता है।