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॥ अथ साकेत वर्णन ॥

जारी........

श्री गोलोक से तुरत सिधावैं। सूर्य लोक को तब चलि आवैं ॥२॥

सूर्य लोक से तब मृतुलोका। करि उपदेश जायँ सतलोका ॥३॥

बैकुण्ठ से जीव जौन कोइ आवैं। पहिले चन्द्रलोक को जावैं ॥४॥

चन्द्र लोक से फेरि सिधावैं। मृत्यु लोक में वासा पावैं ॥५॥

फिरि वै भजन करैं हर्षाई। तब साकेत में बसिहैं जाई ॥६॥

नर्क में भोग भोगाय के जानो। जावैं चन्द्र लोक को मानो ॥७॥

चन्द्र लोक से चलि कै भाई। मृत्यु लोक में पहुँचै आई ॥८॥

 

दोहा:-

कर्मन के अनुसार ते, जन्म लेहिं जग माहिं ।

कह कबीर सुन लीजिये, ऐसै चक्कर खांहि ॥१॥

 

चौपाई:-

भजन करैं मरि कै फिरि जावैं। तब बैकुण्ठ में वासा पावैं ॥१॥

 

दोहा:-

बैकुण्ठ के भोग को भोगि कै, आवै चन्द्र के लोक ।

चन्द्र लोक से फेरि वै, चलि आवै मृतु लोक ॥१॥

सर्व धर्म तजि कै भजै, अभ्यन्तर धुनि नाम ।

अमर पुरी को जाय सो, जो है अचल मुकाम ॥२॥

राम ब्रह्म ढिग वास हो, कह कबीर सुनि लेव ।

आवागमन न होय फिरि, नाम कि धुनि सुनि लेव ॥३॥

वेद शास्त्र सुर मुनि वचन, जरि अग्नी में हौन ।

हस्ताक्षर थे लिखे, कहौं कहां लगि कौन ॥४॥

जहां तहां जो हैं बचे, सो कोइ देखत नाहिं ।

उक्ती से पुर्ती करत, समुझि बूझि मन माहिं ॥५॥

 

नाम चलावन के लिये, करते जो मन मान ।

आखिर का परिणाम यह, होवै नर्क महान ॥६॥

कह कबीर सुनि लीजिये, राम ब्रह्म का खेल ।

समय जैस जब होत है, वैसै खेलैं खेल ॥७॥

दोस किसी का कछु नहीं, समुझि लेव गुरु पास ।

आँखी कान खुलैं तबै, तन मन होय हुलास ॥८॥