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२४१ ॥ श्री महात्मा दयालदास जी ॥

(२)

सतगुरु राम नाम धुनि होती मन अब स्थिर ह्वै गयो मोर ॥१॥

ररंकार धुनि रोम रोम ते हर शै से हो शोर ॥२॥

अनहद नाद बजै घट मीतर आनँद हिये हिलोर ॥३॥

छइउ राग छत्तीस रागिनी मैं परिवार बटोर ॥४॥

गावैं हरि के चरित मनोहर देखैं मेरी ओर ॥५॥

देखत रूप सबै जन मोहैं एक ते एक किशोर ॥६॥

शंख चक्र गदा पदम विराजै, धनुष बान मुरली कर छाजै,

त्रैय मूरति चित चोर ॥७॥

तीनौ शक्ती संग में सोहैं, जिन निरखत सुरमुनि मन मोहैं,

सो मम नैनन ओर ॥८॥

सबै देव मोहिं दर्शन देवैं, कहैं जौन सो हम गुनि लेवैं,

सुफल भयो तन मोर ॥९॥

बद्री नाथ के मंदिर पासै, बास दीन हरि दूरि न भासै,

सत्य कहौं कर जोर ॥१०॥

आठ हजार वर्ष अब बितिहैं तब शरीर की स्वांसा घटिहैं,

तब छूटै तन मोर ॥११॥

चढ़ि विमान साकेत को जावों, राम ब्रह्म ढिग बैठक पावों,

जहां मोर नहिं तोर ॥१२॥

हरि मोहिं अमृत आप पिलावैं, भूख प्यास की तपन बुझावैं

अमर करैं वर जोर ॥१३॥

कर गहि सिंहासन बैठावैं, अपना सा मम रूप बनावैं,

टूटै जग से डोर ॥१४॥

मौन होहु इच्छा गति सारी, जिमि मंदिर में मूर्ति पधारी, जहां रैन नहिं भोर ॥१५॥

महा प्रकाश एक रस जानो, सूर्य अनन्त में तेज न मानो,

यह सिध्दान्त निचोर ॥१६॥

ध्यान धरै सो दर्शन पावै, जियत में मुक्त सोई ह्वै जावै,

करि तन मन हरि ओर ॥१७॥

भक्ति स्वरूप मिलै तब सुन्दर, देखै हरि को बाहर अन्दर,

छूटै द्वैत क जोर ॥१८॥

राम नाम कि धुनि हो हरदम, रहै न तन मन में दुख की गम,

लागी शब्द में डोर ॥१९॥

दास दयाल कहैं यह बानी, सतगुरु चरनन की रति मानी,

बिसरै ना सुधि मोर ॥२०॥