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२४० ॥ श्री श्रृङ्गी जी ॥


दोहा:-

शान्त चित्त सुमिरन करै, गुरु आज्ञा सिरधार ।

सो हरि के पासै रहै, मानो वचन हमार ॥१॥

कोई कुल में अवतरै, हरि से सांचा होय ।

कुछ चरित्र भगवन्त का, आँखिन देखै सोय ॥२॥