२३७ ॥ श्री कूवा जी ॥
दोहा:-
एक समय की बात है, हरि इच्छा बलवान ।
कुवाँ के अन्दर मैं गयौं, माटी तहाँ ढहान ॥१॥
चारों दिशि ते मृत्तिका, तोपि मोहि तब लीन ।
राम नाम परताप ते, मनहुँ समाधी कीन ॥२॥
गऊ रूप ते हरि हमें, थनन के नीचे कीन ।
हमको दुख ब्याप्यौ नहीं, सत्य वचन कहि दीन ॥३॥
धन्य धन्य करुणा अयन, तुमरी गति को जान ।
भूख प्यास लागी नहीं, कहँ लगि करौं बखान ॥४॥
तब सब मिलिकै खोदिकै, माटी दीन हटाय ।
तब हम तुरतै उठि परेन, हर्ष न हृदयँ समाय ॥५॥
ऐसा नाम प्रताप है, सत्य कहौं महराज ।
सांचा ह्वै सुमिरन करै, सारैं प्रभु जी काज ॥६॥