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१६८ ॥ श्री कर्म्मा जी ॥


दोहा:-

राति रहै जब दुइ घड़ी उठौं चित्त हर्षाय ।

किरपानिधि के खान हित, खिचरी धरौं बनाय ॥१॥

नेम टेम में देर कहुँ, ह्वै हैं नाथ भुखाँय ।

तौ जग में जन्मौं मरौं, प्राणपती रिसियाँय ॥२॥

नित मेरे गृह आय हरि, परसि देंउ तब खाँय ।

नित दर्शन हों श्याम के नयना नहीं अघाँय ॥३॥

प्रभू की जूठनि जो बचै, सो मैं प्रेम से खाउँ ।

या से दीनानाथ जी, दीन पास ही ठाऊँ ॥४॥

प्रेम करै सरकार से, तन मन करि एक ठौर ।

तब रीझैं परसन्न ह्वै, प्राण पती चित चोर ॥५॥