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१३१ ॥ श्री अम्बरीष जी ॥


दोहा:-

ठाकुर की सेवा करैं, तन मन ते एक तार ।

साल में जितने वर्त हों, करैं सबै निरहार ॥१॥

सदा नाम सुमिरन करैं, मुख से बोलैं सांच ।

विष्णु चक्र रक्षा करें, लागि सकै नहिं आंच ॥२॥

नाम रूप में भेद नहिं, जानि लेय जग आय ।

अन्त समय हरि पास में, सिंहासन चढ़ि जाय ॥३॥