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६६ ॥ श्री महात्मा मूरखदास जी ॥

जारी........

आपै फिरि लौटाय देंय हरि आपै आप मिलाई ॥६१॥

उत्पति पालन प्रलय होत जो सब रकार से भाई ॥६२॥

सत्यलोक सत्पुरुष रहत तहँ सोऽहं शून्य कहाई ॥६३॥

ओंकार त्रिकुटी के ऊपर शिव ब्रह्मा हरि पाई ॥६४॥

है रकार का खेल अगम अति निर्गुन सर्गुन भाई ॥६५॥

अक्षर औ निःक्षर है वह विरलै लखि कोइ पाई ॥६६॥

वज्र केवाड़ त्रिगुण के लागे ताला द्वैत कहाई ॥६७॥

सूरति जाप कि ताली अजपा सबै काम बनि जाई ॥६८॥

अपनै आप को जानि मानि तब अपनै आप कहाई ॥६९॥

षट चक्कर वेधन सब ह्वै गये सातों कमल खिलाई ॥७०॥

कुंडलिनी को जागृत कीन्हीं घूमि चहूँ दिसि आई ॥७१॥

चन्द्र सूर्य दोउ एक में करिकै सुखमन घाट नहाई ॥७२॥

तिरवेनी मल रहित कीन मम आनन्द हिय न समाई ॥७३॥

पाँच तत्व के नाम रूप औ चाल स्वाद सब पाई ॥७४॥

पाँचौ मुद्रन नाम वास अरू काम सबै लखि पाई ॥७५॥

जौन देव जहँ वास करत हैं उनको सीस नवाई ॥७६॥

अभ्यन्तर धुनि जौन होत है सब सुर तहां लुभाई ॥७७॥

नाम प्रताप रूप वहु धरि सुर हरि सँग खेलत भाई ॥७८॥

बहुत काम सृष्टी का करते आलस तनक न आई ॥७९॥

किरिया आसन सब हम कीन्हे विरथा देह तुराई ॥८०॥

जड़ समाधि हम करकै देखा सार वस्तु नहि पाई ॥८१॥

राज योग अति अगम सुगम विधि सतगुरु दियो बताई ॥८२॥

आसन की कोई विधि नाहीं जैसे तन मन भाई ॥८३॥

धनि धनि धनि सुर मुनि ऋषि संतन जिन यह मार्ग खोलाई ॥८४॥

श्री कलियुग के थोड़ेहि दिन में जन्म सुफल ह्वै जाई ॥८५॥

करम भरम की नाश भई है काल गयो खिसियाई ॥८६॥

जिन हरि गुरु में भेद न राख्यौ तिन यह पदवी पाई ॥८७॥

निसिवासर जहँ अमृत वरसै ताल भरे हहराई ॥८८॥

संत हंस तहँ पान करत हैं निर्भय जाय कै भाई ॥८९॥

अमित स्वाद तेहि वरनि सकै को जो जाई सो पाई ॥९०॥

पांच रंग मिश्रित हैं ता में पय सम पातर भाई ॥९१॥

अति सुगन्ध मय कहँ लगि बरनौं शेष न सकहिं बताई ॥९२॥

जो कोई पियै अमर ह्वै जावै राम नाम ते पाई ॥९३॥

परारब्धि संचित क्रिय मानहु नासि भई तेहि भाई ॥९४॥

अब अकाल ह्वै गयौ सोई नर जो यहि भेद को पाई ॥९५॥

बहुत दिनन का सूत जो अरझा मन मलीन ते भाई ॥७६॥

नाम कि जाप जबै मिलि जावै सुरझि जाय हरि पाई॥९७॥

ज्ञान गुलाम करै का सुनिये प्रेम क पंथ है भाई ॥९८॥

नाम रूप परकाश दशालय प्रेम से सब मिलि जाई ॥९९॥

सब से बड़ा प्रेम का दर्जा सुर मुनि संतन गाई ॥१००॥

प्रेम जीव के संग में आवत कछु सत्संग ते पाई ॥१०१॥

संस्कार सँग लगे रहत हैं जन्मत मरत सदाई ॥१०२॥

यह मरजाद सृष्टि की जानौ सांची बात सुनाई ॥१०३॥

बिना वासना नाश भये कोइ सत्यलोक नहिं जाई ॥१०४॥

आना जाना होत इसी से लगी वासना भाई ॥१०५॥

जन्मत मरत तलक का लेखा लिखा वहां पर भाई ॥१०६॥

जो जैसी करनी करता है वैसे दरजा पाई ॥१०७॥

अणू अणू में नाम रूप है व्यापक सब में भाई ॥१०८॥

करिकै यतन मगन ह्वै देखो सब में वही दिखाई ॥१०९॥

सत्य लोक साकेत पुरी कोई कहत अमर पुर भाई ॥११०॥

राम ब्रह्म का वास खास तहं परिपूरन कहलाई ॥१११॥

जारी........