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५० ॥ श्री दुर्गा जी ॥


छन्द:-

साकेत को सो जाय जगते शब्द सतगुरु जेहि दिया ॥१॥

सुरमुनि सबै जय जय करैं वर्षै सुमन हरषे हिया ॥२॥

पहुँचे अमरपुर जाय जहँ पर भक्त जन बैठक लिया ॥३॥

प्रभु धाय कृपानिधान कर गहि आप ही आसन दिया ॥४॥

आपन स्वरूप बनाय अमृत प्याय इच्छा गत किया ॥५॥

सो धन्य जग में फिर न आवै दर्श कै ललचै जिया ॥६॥


दोहा:-

कमल सहस दल के तले गुरु को आसन देय ।

ध्यान करै गुरु मूर्ति का जानि गूढ़ गति लेय ॥१॥