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३१ ॥ श्री सुन्दरदास जी ॥


दोहा:-

सुरति शब्द असवार ह्वै पहुँची हरि ढिग जाय ।

जियत में मुक्ती ह्वै गई तब वह भक्त कहाय ॥१॥


पद:-

सतगुरु की जय जय हरदम सुन्दर रहे मनाई ।

जिन शब्द भेद देकर आवागमन मिटाई ॥२॥

धुनि रोम रोम होती कानन भनक समाई ।

रघुनाथ जी जगतपति श्री जगतजननि माई ॥३॥

हरदम दरस हैं होते सन्मुख रहैं सदाई ।

ऐसी अनूप जोड़ी मुख से बरनि न जाई ॥४॥

हैं सब में सब से न्यारे नहिं वेद भेद पाई ।

सर्गुन व निर्गुन हैं वह नहिं रूप रंग भाई ॥५॥

जानै व मानै सोई जो लय दशा में जाई ।

जियतै में मुक्ति भक्ती हरि पास वास पाई ॥६॥

सूरति शबद लगाकर अजपा को जपिये भाई ।

नहिं कर हिलै न नैना जिह्वा चलै न भाई ॥७॥

पापील मीन मारग ऊपर विहँग कहाई ।

यह मार्ग सब से ऊँचा सतगुरु हमैं बताई ॥८॥

यह चन्द्र सूर्य दोनों एकै में जब मिलाई ।

तब सुखमन ह्वै के सुनिये तिरवेनी जी नहाई ॥९॥

ह्वै कर विमल तो प्यारे ज्योती के दर्श पाई ।

उपमा मैं क्या बताऊँ परकाश बहुत भाई ॥१०॥

षट चक्र वेधन ह्वै गये सातों कमल फुलाई ।

नागिन को जागृत कीन्हीं चहुँ ओर घूम आई ॥११॥

हैं पाँच जौन मुद्रा उन सब को जान पाई ।

क्या पाँच तत्वों के रंग चाल स्वाद पाई ॥१२॥

हैं देव जो जहाँ पर दर्शन सबों के पाई ।

सब देव हम से बोले हँसि हँसि के सुनिये भाई ॥१३॥

है आदि अंत नाहिं हरि का किसी ने पाई ।

अभ्यन्तर धुनि जो होती सब सुर तहाँ लोभाई ॥१४॥

हैं प्रेम से वे मिलते सुर मुनि अकह बताई ।

तन मन से प्रेम करिके करि लेव याद भाई ॥१५॥


चौपाई:-

अगम अथाह अकह प्रभु जोई। ताको भेद पाव किमि कोई ॥१॥

सब से विलग रहत सब मांही। पल भरि काहु को बिसरत नाहीं ॥२॥

जो जेहि लायक जीव कहाई। वैसे वाको जानत भाई ॥३॥

जैसी करनी जो कोइ करिहै। अपनै आपै आप तो भरि है ॥४॥

हरि सब को भोजन पहुँचावैं। गुन औगुन को भेद न लावैं ॥५॥

भजहु नाम तन मन हरखाई। जासे आवागमन नसाई ॥६॥

नाम बिना जाने कोइ भाई। हरि के ढिग कोइ जाय न पाई ॥७॥

गाफिल ह्वै के जो कोइ रहिहै। वहां जाय के अति दुःख पैहे ॥८॥

झूठी गप्पैं गाल बजाउव। भूलि जाय सब हँसि मटकाउव ॥९॥

जब यमराज गदा सिर दैहैं। कहौ कौन तुम्हरी सुधि लैहैं ॥१०॥

पकरि टांग जब तुमको पटकैं। संग के साथी कहां हैं हटकैं ॥११॥

अरुण नयन औ रूप कराला। हाथन में लीने दोउ भाला ॥१२॥

देही में तुमरी अस भेदहिं। मानो हींग का विरवा छेदहिं ॥१३॥

नाना अस्त्रन ते लय मारहिं। बहुते नरकन में लय डारहिं ॥१४॥

सिंह व्याल खग बहु हैं जँहवा। काटैं नोचैं खावैं तहँवा ॥१५॥

नरक में किरवा बहुत भरे हैं। पापी तिन में खूब परे हैं ॥१६॥

काटें तन में रहा न जाई। रोवैं हरदम तहँ सब भाई ॥१७॥

राम भजन बिन हाल होय अस। मानो आगे आप परी अस ॥१८॥

नाना अस्त्रन ते लै मारहिं। बहुते नर्कन में लै डारहिं ॥१९॥


दोहा:-

महा कष्ट है नरक में, कहँ लगि करूँ बखान ।

निज नैनन देखा अहै धरिकै सुनिये ध्यान ॥१॥

जारी........