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३० ॥ श्री कबीरदास जी ॥

जारी........

गिरही बिचारे भेष लखि सब जानते फिर मानते ॥१०॥

बनि सिध्दि झूठे गिध्द साँचे मांस नोचन जानते ॥११॥

मुरदा आहार है गिध्द का जिन्दा करैं बेइमान ते ॥१२॥

साधू का शान्त स्वभाव हो अरु खरा तन मन प्रान ते ॥१३॥

जो वस्तु देवै खुशी से सोइ लीजीये सन्मान ते ॥१४॥

वह दूध भिक्षा जानिये हैं सन्त धन्य महान ते ॥१५॥

जो दंड देकर झूठ कहकर लेत हैं सुख मानते ॥१६॥

वह रक्त भिक्षा है सुनो सुर मुनि व बेद बखानते ॥१७॥

बच करके जाओगे कहां सुनिये तो तुम शैतान ते ॥१८॥

चुल्लू भरे पानी में मरिये बूड़ि उल्लू जानते ॥१९॥

नेकी क बदला नेक है बद का बदी सब जानते ॥२०॥

हुशियार नहिं मुखकार हैं बटपार हैं बदनाम ते ॥२१॥

खर स्यार हैं बकुला जयन्ता सुअर जानो स्वान ते ॥२२॥

रौ रौ नरक में जाइहैं ऐसे सुनो वे ज्ञानते ॥२३॥

अन्धे व बहिरे हैं बनें परदा पड़ा अज्ञानते ॥२४॥

इनते भले अन्धे व बहिरे मांगिलावैं ग्राम ते ॥२५॥

कोढ़ी व पंगुल हैं भले सब अंग हीन बखानते ॥२६॥

धिक्कार धिक धिक जन्म जग नर तनक लाभ न जानते ॥२७॥

साधू न देवैं दुःख कबहूँ सुक्ख देना जानते ॥२८॥

रामानन्द जी का शिष्य हूँ कहता हूँ बचन प्रमानते ॥२९॥

सतगुरु चरण का जेहि भरोसा कह कबीर महान ते ॥३०॥


दोहा:-

सतगुरु की चपरास है कंठी याको नाम ।

तन मन प्रेम से बाँधिये लै कै राम को नाम ॥१॥

स्वांस वृथा जावै नहीं तहूं परै कछु ठीक ।

नाहीं तो यम पुरी में चलैं लोह तन सींक ॥२॥

महा ज्ञान का तिलक जब जाको प्रापति होय ।

ध्यान का शीशा सामने हर दम दरसन होय ॥३॥

नाम रूप परकाश लय चारिउ जो कोइ जान ।

तौन अखन्डानन्द है कह कबीर लेव मान ॥४॥

मन तो स्थिर भा नहीं केश भये सब श्वेत ।

कंठी बांधे का भयो रहे प्रेत के प्रेत ॥५॥

कंठी कसिकै बांधिये राम नाम के संग ।

धागा में दाना अहैं दाना धागा संग ॥६॥

यमराजन की मारु में झूठी कंठी टूटि ।

अबहिं तो समुझत नहीं चारों नैना फूटि ॥७॥

भीतर ते रंगि जाय जब तब बाहेर खुलिजाय ।

कह कबीर तेही जीव का आवागमन नसाय ॥८॥

या से साधन कीजिये सतगुरु का करि ध्यान ।

तब किरपानिधि की कृपा होवै लीजै मान ॥९॥

राम नाम अनमोल है अकथ अनादि अथाह ।

अकह अपार है एक ही सुर मुनि संत गवाह ॥१०॥

लिखना तन में जाय लिखि भीतर बाहेर एक ।

सब में वही देखाइहै, फरक परै नहिं नेक ॥११॥

अन्दर मूरति पूजिकै, मन इस्थिर करि लेव ।

तब बाहेर की मूर्ति में, वही मूर्ति लखि लेव ॥१२॥

अंधे बहिरे बहुत जग देखन सुनन के थोर ।

कह कबीर सुनि लीजीये वचन सत्य है मोर ॥१३॥

हरि का रूप लखै नहीं तिनको अन्धा जान ।

राम नाम धुनि सुनै नहीं तिनको बहिरा मान ॥१४॥

तन मन प्रेम लगाय कै साधन करते नाहिं ।

पढ़ि सुनिकै कथनी कथत ते सब नरकै जाहिं ॥१५॥

जारी........