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३० ॥ श्री कबीरदास जी ॥

जारी........

अन्तरध्यान होंय हँसि करिके सो सुख कौन बखानी जी ॥५०॥

स्वामी जी तब पायस पावैं पाषाण पात्र शुभ मानी जी ॥५१॥

पाय भोग श्री गुरु जी बैठैं बोलैं धीरे बानी जी ॥५२॥

सब प्रेमिन के सहित शिष्य सब पावैं हम सुख मानी जी ॥५३॥

सुनिकै बचन प्रेम तन पुलकित क्षुधा पियास हेरानी जी ॥५४॥

यकइस सै मूरति सँग सोहैं सत्य बचन लेव मानी जी ॥५५॥

गुरु प्रताप ते अगनित होवैं तहूँ न चुकै महानी जी ॥५६॥

शेष रहै खाली नहिं होवै है यह अकथ कहानी जी ॥५७॥

अन्नपूर्णा माता सँग में रिद्धि सिद्धि सुखदानी जी ॥५८ ॥

पारब्रह्म श्री गुरु हमारे सब जग जिनको जानी जी ॥५९॥

सुनिकै ये आश्चर्य करै तिनकी मति भरम भुलानी जी ॥६०॥

भक्तन में हरि में नहिं अन्तर है यह बात पुरानी जी ॥६१॥

एकै एक ग्रास सब पावैं सब समाज हम जानी जी ॥६२॥

मस्त रहैं श्री गुरु किरपाते कैसा भोजन पानी जी ॥६३॥

ऐसे गुरु दयाल हमारे जो जानी सो मानी जी ॥६४॥

करि विश्वास बचन श्री गुरु के भजन करैं मनमानी जी ॥६५॥

काम क्रोध मद लोभ मोह यह शान्त होंय हम जानी जी ॥६६॥

माया आप मौन ह्वै बैठै मानहु मोल बिकानी जी ॥६७॥

द्वैत छूटि गयो दीन भाव जब आप मिटै तब जानी जी ॥६८॥

निन्दा अस्तुति सम ह्वै जावै को है ज्ञानी ध्यानी जी ॥६९ ॥

धरती-पवन-अकाश-अगिनि जल सब में सारँगपानी जी ॥७०॥

कहैं कबीर श्री गुरु किरपा चरन कमल रति मानी जी ॥७१॥


गारी:-

हमरे नाम से भजन बनावैं ऐसे निमकहरामी जी ॥१॥

शिव ब्रह्मा श्री कृष्ण विष्णु की निन्दा करत गुलामी जी ॥२॥

भाव रहै यह तब ही तरिहौ हम सेवक हरि स्वामी जी ॥३॥

निशिवासर जो भजन करै औ भोजन करै मुदामी जी ॥४॥

पवन तनय को बनचर कहते ऐसे हैं अभिमानी जी ॥५॥

जिनके तन मन राम रमे हैं दासन में अगवानी जी ॥६॥

शंकर जी के रूप हैं दूसर बीज-मंत्र जिन जानी जी ॥७॥

सब देवन औ वेद तीर्थन की निन्दा नित ठानी जी ॥८॥

दुष्ट जनन का काम यही है उनकी मति बौरानी जी ॥९॥

है अनादि यह कर्म धर्म श्री गुरु मुख की सतबानी जी ॥१०॥

कब से सृष्टी रची गई यह कौन कहै को जानी जी ॥११॥

झूठ कहै सो नरक में जावै होवै ऐंचातानी जी ॥१२॥

हरि की लीला हरि ही जानैं यह हम तौ मनमानी जी ॥१३॥

यह सब वर्ण बने तब ही से जब सृष्टि हरि ठानी जी ॥१४॥

बीच में कौन बनाय सकै है कौन बड़ा बुधिमानी जी ॥१५॥

सेर को करैं सुमेर देर नहिं राई करैं महानी जी ॥१६॥

राम नाम को सुमिरन कीजै काहे चलत उतानी जी ॥१७॥

छूंछ पछोरे ते का मिलिहै माँगि के सूप बिरानी जी ॥१८॥

बाद बिबाद में दुःख बढ़ै अति मिलै न कौड़ी कानी जी ॥१९॥

रोये चुकिहै नहीं अन्त जब यम के हाथ बिकानी जी ॥२०॥

साधू निन्दा नहीं करत हैं समुझावत सतबानी जी ॥२१॥

नाहक उमिरि बिताय रहे हो झूठै झगड़ा ठानी जी ॥२२॥

सतगुरु से मिलि सुमिरन करिये थोड़ी सी जिन्दगानी जी ॥२३॥

बिन गुरु कृपा तरो नहिं भवनिधि तुलसीदास कि बानी जी ॥२४॥

सूरति शब्द का खेल जानि लेव पावो पद-निर्बानी जी ॥२५॥

राम विष्णु औ कृष्ण एक ही छोड़ो कपट कहानी जी ॥२६ ॥

मानुष का तन पाय हाय बनि बैठे नरक निशानी जी ॥२७॥

यह तो देह सुरन को दुर्लभ गुरु किरपा हम जानी जी ॥२८॥

द्वैत भाव तजि दीन होहु लै साँचे सतगुरु बानी जी ॥२९॥

करो समर तब अमर होहु जग आवागमन नसानी जी ॥३०॥

जारी........