साईट में खोजें

२९८ ॥ श्री परदेशी शाह जी ॥

(अपढ़)

  चौपाई:-

दया धर्म में जे मन लाते। ते बैकुंठ भवन बिच जाते।

तन मन से परस्वारथ करते। तिनके पट जियतै में खुलते॥

 

दोहा:-

बहुती साखा भजन की, जो जासें सधि जाय।

उसी से वाकी गती हों, सुर मुनि वेदन गाय।

परदेसी की बिनय यह, मानि लेव सुख होय।

जियतै में सब प्राप्त हो, दुख को डारौ धोय।

मुसलमान की जाति मैं, परदेसी है नाम।

राम राम सुमिरन किया, इसी से सरिगा काम।६।