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२१ ॥ श्री नानक जी ॥

जारी........

जिह्बा उलटि के दशम में, कसि के देय लगाय ॥१२॥

महा शून्य के घाट पर, महा खेचरी जान ॥१३॥

भँवर गुफा पँहुच्यौ जबै, बन्द भई तब मान ॥१४॥

श्री गुरु शुकदेव जी, मोपर किरपा कीन ॥१५॥

रूप सदा सन्मुख रहै, सूरति शब्द में लीन ॥१६॥

मानुष का तन पाय कै, निशि दिन भज्यौ न राम ॥१७॥

अगनित चक्कर काटि है, मिलै नहीं विश्राम ॥१८॥

राम नाम सुमिरन करौ, तन मन प्रेम लगाय ॥१९॥

नानक की यह विनय है, सब से शीश नवाय ॥२०॥


पद:-

सब में सब से परे हैं स्वामी रूप अहै नहिं रूपम् ॥१॥

अकथ अनादि कहैं सुर मुनि सब गावत चरित अनूपम् ॥२॥

अकह अपार अगम करुणामय भक्तन हित नर रूपम् ॥३॥

नानक सरन सरन प्रभु तेरी चर अरु अचर के भूपम् ॥४॥


चौपाई:-

मानुष का तन मिल्यौ अमोला। करि हरि भजन सुफल करु चोला ॥१॥

हरि को भजि ले सुरति सँभारी। कह नानक फिरि मिलै न वारी ॥२॥

संतन के यह बचन करारी। नानक तन मन प्रभु पर वारी ॥३॥


दोहा:-

महा प्रकाश में रूप है, रूप में महा प्रकाश।

नाम में महा प्रकाश है, रूप में नाम का वास ॥१॥

नाम रूप परकाश का, देखा चहै जो रंग

नानक हर दम हरि भजै, रहै सदा ही संग ॥२॥

गौर वर्ण शशि जानिये, श्याम वर्ण हैं भानु।

पालन शशि ते होत है, उतपति सूर्य से जान ॥३॥


चौपाई:-

पिता विष्णु सम रवि को जानो । लक्षमी माता सम शशि मानो ॥१॥

सुखमन मन को सुख उपजावै । धुनी ध्यान लय में पहुँचावै ॥२॥


दोहा:-

शशि ते थिर कारज बनै, रवि से चर को जान ।

नानक हरि के भजन बिन, मिलै न पद निर्वान ॥१॥

सिध्दिन में परि के कहीं, मन प्रसन्न ह्वै जाय।

पावन बेड़ी परि गई, घूमि घूमि चकराय ॥२॥

तीखे कंटक जानिये, बचा रहे सो सूर ।

नानक गुरु परताप ते, राम कृपा भरपूर ॥३॥


चौपाई:-

चारौं ध्यान देव बतलाई। सुनि कै तन मन अति हर्षाई ॥१॥

प्रथम ध्यान करू नैनन बन्दा। देखौ चरित सच्चिदानन्दा ॥२॥

दूसर ध्यान खुलें दोऊ नैना। खेलैं हंसै कहैं मृदु बैना ॥३॥

तीसर ध्यान है सन्मुख झाँकी। बरनि सकै को छवि अति बाँकी ॥४॥

चौथा ध्यान दिब्य साकेता। संत हंस सँग कृपानिकेता ॥५॥

चारौं ध्यान सिध्द ह्वै जावैं, तब सब सुर मुनि दरस दिखावै ॥६॥

नाना खेल करैं सँग आई। सो चरित्र नहिं बरनि सिराई ॥७॥


दोहा:-

पाँच प्राण मिलि एक हों, तब पावो वह ठौर ।

कह नानक मेरे गुरु, तत्व ज्ञान शिर मौर ॥१॥

अपने में सबको लखैं, सब में आप को मान ।

इस रहस्य के भेद को नानक सो कछु जान ॥२॥

नाद विन्दु में जब कोई, ह्वै जावै सम्पन्न ।

वीर्य उर्ध्व होवै तबै, कह नानक सो धन्य ॥३॥


चौपाई:-

पदवी महा पुरुष की जानो । दरशन करत हरैं अघ मानो ॥१॥


दोहा:-

नानक ऐसे सँत जन, गुरु किरपा मिलि जाहिं ।

मानो हरि ही मिलि गये, भेद नहीं बिलगाहिं ॥१॥

नानक ऐसे सँत जन, करैं सदा उर वास ।

जिनकी कृपा कटाक्ष ते, तन मन रहे हुलास ॥२॥

जारी........