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१७५ ॥ श्री राजेश्वरी माई जी ॥

(मिती अगहन सुदी २, सं. १९९३ बि.)

सोरठा:-

आई कहन हवाल सुनिये श्री महराज जी।

आपने लीन्ह सम्हाल पूरण भा मम काज जी॥

 

चौपाई:-

अवध पुरी सम धाम न दूजा। सुर मुनि करत आय नित पूजा॥

हरि की हम पर भइ अति दाया। अन्त आप की गोद बिठाया॥

दुख तन ते भा तुरत रवाना। मन में हर्ष स्वत: उमड़ाना॥

राम नाम धुनि सब तहँ कीन्हा। सो सब हम कानन सुनि लीन्हा॥

सुर मुनि सहित बिष्णु सुखदाई। मम सन्मुख प्रगटे तहँ आई।५।

 

आसा बल्लम पंखा मुरछल। ध्वज पताक सुर मुनि लीन्हे भल॥

छोड़ि शरीर दिब्य तन पावा। बारह वर्ष क सो मन भावा॥

चारि भुजा भइ कोमल बानी। जय जय जय श्री प्रभु सुखदानी॥

भूषण बसन गरुड़ चट साजा। सुर मुनि खूब बजायो बाजा॥

दिब्य बिमान तहां चलि आवा। शोभा निरखि हिया हरखाया।१०।

 

तामे चारि पारषद लागे। तन मन प्रेम से हरि रंग पागे॥

कर गहि तापर मोहिं बिठायो। सुर मुनि जय जय कार सुनायो॥

चलि इन्द्रासन में धरि दीन्हा। शची सुरेश के दर्शन कीन्हा॥

आय अप्सरा नाचन लागीं। अस्तुति करैं प्रेम में पागीं॥

उठयो बिमान फेरि सुखकारी। जाय धरयौ बैकुण्ठ मँझारी।१५।

 

भाँति भाँति तहँ पर सिंहासन। एक पै मोहिं करायो आसन।

चलीं अप्सरा इन्द्र के धामा। कर जोरयौ करि मम परनामा।

अति बिचित्र लागी फुलवारी। उड़त सुगंध सदा अति प्यारी।

पांच रंग के फर्श पड़े हैं। तिनमें बूटा बेल जड़े हैं।

पैर परत दबि जात बीत भरि। उन फर्शन की कौन करै सरि।२०।

 

शोभा वहँ की बरनि न जाई। त्रिबिधि समीर बहै छबि छाई।

नर नारी तहँ करैं किलोलैं। झूला झूलैं बैठें बोलैं।

पति दामाद पिता औ माता। सासु ससुर समधिनि कुशलाता।

सब हमको तन मन ते चहते। थोड़े दूर पै आसन रहते।२४।

 

दोहा:-

तेइस करोड़ बर्ष मोहिं, हरि ने दीन्हयो बास

राजेश्वरी मम नाम है, बचन मानिये खास॥