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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल ३४ ॥ (विस्तृत)

४४६. गेंहूँ, जौ, चना, मंूग, अरहर की दाल, भैंस का घी, गाय का दूध, साग पालक, चौराई, परवल, चचेडा, जीरा घी से छौंक दे और कुछ नहीं। भोजन के १ घन्टा बाद महीन सौंफ ३ मासे खाकर दो घूंट पानी पी ले फिर १ घन्टा पानी न पिये। भोजन के बाद साम को भी उसी तरह सौंफ खाय। सौंफ सुखाकर रख ले डब्बा में। आंख की रोशनी कुछ दिन बाद बढ़ जायेगी। परहेज बराबर जारी रहे। 

४४७. सिकन्दर जब बीमार था ३२ की उमर थी, हकीम लोग जवाब दे दिये। तो कहा हमारे हाथ कफन के बाहर कर देना कि सिकन्दर खाली हाथ चला गया । और लास (लाश) हकीम लोग कन्धे पर ले जांय। वैसा ही हुआ। कबर पर सच्चे पत्थर लगाये गये। सोने के कठघरा में रेशमी कपड़े बिछा कर इतर से तर करके। ऐसी कबर बनी जिसमें करोड़ों का खर्च लगा। 

सब बेगम फौज रोकर लौट गये। माता बैठी रोती रही। तो आकाश वाणी हुई तू किस सिकन्दर को रोती है। इस जगह पर कोटिन सिकन्दर दफन हो चुके हैं तब माता की बुद्धि पलट गई, घर को गई। यह तो मामूली बात है। 

४४८. पद लिखाये गये है: 
उन्चास कोटि पृथ्वी पर हम सब 
अगणित बार मरे जन्में, तिल तिल जगह में। 

४४९. हद हो गई। दशरथ जी के दाह के लिये भरत जी ने जमीन खोदा तो १ पावा भर जमीन सरजू के किनारे बिल्वहर महादेव जी (मंदिर) के पास मिली। भरत जी विष्णु भगवान के अवतार थे। तब चन्दन के चार खम्भे गाडे़ गये। चन्दन की चिता कपूर सुगन्धित धूप गोधृत पर तब जलाये गये। 

४५०. भैंस गाय न मरे:-

हर सनीचर को पीपर पर, १ चुटकी काले तिल, १ पाव पानी चढ़ावे और साम को तेल में बत्ती बारकर पीपल तरे धर आये। 

४५१. एक ईश्वर प्रेमी के लिये सभी स्थल मन्दिर और मस्जिदें हैं। सभी दिन शुक्र और सभी महीनें रमजान हैं। वह जहाँ रहता है ईश्वर के साथ रहता है। 

४५२. पद:-
औरन को देखत भई, जिसकी शीतल छाती। 
जन्म सफल है उसका, प्रभु है उसके साथी॥ 

४५३. रविया के पास २ रोटी थी, २ मंागने वाले आये १-१ दे दीं। फिर २ सिद्ध आये। किसी ने १८ रोटी भेजीं, वापस कर दीं। फिर २० रोटी आइर्ं। फकीर ने पूछा - वापस क्यों कर दीं? बोलीं - १ देने से १० मिलती हैं, २ कम थीं, अत: वापस कर दीं। अब २० आईं १०-१० खाओ पेट भर जायेगा। 

४५४. कायर भजन नहीं कर सकते। हाथ पर कलेजा धरने वाला भजन कर सकता है। आसान नहीं। भोजनानन्दी बनो या भजनानन्दी। 

४५५. जितना भोजन कम होगा उतना शरीर हल्का रहेगा। काम हो जावेगा। 

४५६. प्राण का लोभ छोड़े बिना भजन न होगा। 

४५७. ऊपर की सेवा से काम न चलेगा, सेवा अन्दर से होना चाहिए। 

४५८. अब शरीर ऐसा हो गया है कि बन्द रहे ४ दिन न खोले। अंधेरे में लीला होती है। 

४५९. हमने सब जातिन की सेवा मल मूत्र (सफाई) की करी है। 

४६०. अघाने (समर्थ) ब्राह्मण को न खवाये, भूखे को खवाये।