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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल २४ ॥ (विस्तृत)

३२१. अपना भविष्य अपने हाथ में है, भाव बिना गती नहीं। मंत्र लेके अभ्यास की जरूरत है। 

३२२. सबेरे डोल-डाल जाकर स्नान करके तब भजन ध्यान में बैठे। आलस्य नहीं रहता। आलस्य रहने से वायु बिगड़ जाती है। 

३२३. वचन मान ले - बस कल्याण हो जाय। देखाऊ काम भगवान और देवी देवताओं (को), और हमारे पसन्द नहीं है। न कहने की जरूरत न लिखने की जरूरत है। अपना भाव और विश्वास अटल रखने की जरूरत है। 

३२४. मंत्र स्वत: शक्ति स्वरूप है - उसमें स्वत: शक्ति है। 

३२५. जिसका अगाध प्रेम होगा, उसी को भगवान मिलेंगे। बिना इन्द्रिय दमन काम न बनेगा। २ बजे उठे तब काम बनेगा। दुनिया जागे मन भागे। 

३२६. चोट नहीं लगती तब तक भजन नहीं होता। 

३२७. मन लगने का उपाय:-

कुधान्य न खाय, अपनी नेक कमाई का सादा सूक्ष्म भोजन (खाय)। सादा वस्त्र पहने। 

३२८. अपनी विचार कुछ नहीं चलती। जै दिन का, जहाँ का अन्न जल होता है - भगवान रखते हैं। समय, स्वांसा, शरीर भगवान का है। जो अपना मानते हैं वह भगवान को, मौत को भूले हैं। 

३२९. एक कन्या को ससुराल में कष्ट मिलने पर कन्या के पिता को समझाना:-

जैसा होनहार होता है वैसी बुद्धि हो जाती है। तुम्हारा कसूर नहीं है। लड़की शंकर जी का मंत्र जपै मन लगाकर, सब काम हो जावेगा। उसकी खातिर करने लगैं। सारा खेल मन का है। यह भोग पुराना है। उसको भोगने से छुट्टी हो जावेगी, सुखी रहेगी। तुम बेकार चिन्ता करते हो। इसका असर लड़की पर जाता है। 
३३०. साधु के लक्षण:-

जब हम १२ वर्ष के थे, तब हमारे गाँव में बल्दी सुनार थे। उनके घर में ईश्वरदीन, शम्भू, भगवानदीन, गिरजादयाल थे। सब साधु सेवा करते थे। गाने, बजाने की शौक थी। एक बूढ़े साधु हनुमान जी के भक्त थे, उनके साथ चार साधु नवजवान आये। उनके यहाँ महीनों रहा करते थे। एक बार गांव के कई दुष्ट रात में हाँडी में मैला भरकर अध्धा (आँगन) पर आधी रात में फेंका। गरमी के दिन थे, हवा चलती थी, और सब अवली (छत) के नीचे थे। अध्धा भी उसी के नीचे था। सब सो रहे थे, हंड़ी फूटी। बाबा छीप गये, अध्धा भी छीप गया। बाहर के साधुन (साधुओं) पर भी छींटे पड़ी। सब जग पड़े। पास में कुंआ था तालाब भी था। सब नहाये, सुबह अध्धा धोया गया। बहुत लोग सुने, आ गये। बाबा ने कहा-इस गाँव में हम कई बार आये कुछ न मिला। अबकी भगवान ने हमारी इच्छा पूरी कर दी। हम कैसे इन लोगों से उद्धार होंगे। धन्य हैं इस गांव के भक्त लोग। तब चार साधु जो थे, कहे- महाराज, आप की बदौलत हमें भी कुछ छींटे मिल गये - हमें उतना ही प्रसाद बदा था। फिर कभी किसी ने नहीं बहाया। बाबा कई बार आये फिर गाँव के सब लोग आये, दर्शन करने लगे। ऐसे सहन शील संत थे। यह साधुन के लक्षण है।