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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल २२ ॥ (विस्तृत)

३०४. राजा रामसिंह जी के विषय में (श्री महाराज जी के विचार) २२.११.७३ 
रामसिंह की यात्रा से हमें दुःख हुआ। महाराज का शरीर छूटा, माता का यहीं छूटा, पिता का घर पर माला लेकर राम राम करते छूटा। आजी का छूटा, चाचा और दो चाचिन का छूटा, बड़े चाचा के दो लड़कों का छूटा। हमारे दो भाइयों का छूटा। हमें इतना दुःख नहीं हुआ जितना रामसिंह के लिये हुआ। यह हम रामसिंह से कहा, तो बोले - यह कोई पुराना हमारा आप का संस्कार होगा। इसी से ऐसा हुआ। 

३०५. श्री महाराज जी - भगौती वार्ता - (रामसिंह के सिलसिले में): 
भगवती ने कहा हमारा ऐसा कोई भक्त नहीं जो अपना सर व धड़ अपने भक्त के लिये माना हो। हम तुमको अपने पास राखँूगी। कृष्ण भगवान ने तुम से कहा था, कुछ दिन और वहाँ रहो, थोड़ा काम तुम से कराना है, फिर हमारे पास आवोगे। अब तुम सर धड़ हमैं दे चुके, तो भगवान से हम तुमको मांग लेंगी। भगवान हमारी बात न टालेंगे। वे दीन दयाल करूणा सागर हैं। और यह कहा - जब अपने पास राखौंगी तो ऐसी शक्ति तुमको दे दूंगी कि सब देवी देवताओं के लोक देख आवोगे। सब से मिल आवोगे। 

भगवती ने कहा - जिसकी सुरति तुम में लग जावेगी वही तुम्हारे पास आ जावेगा। यह तार ऐसा है कि खींच लेता है, छूटता नहीं। जब सुरति लगाने वाला आ जाता है तभी छूटता है। इसी तरह से सुरति लगाने से देवी-देवता सब आ जाते हैं। इसी सुरति के तार को बहुत कम भक्त जानते हैं । 

इसका प्रचार जानकी जी ने किया है - प्रथम शंकर जी को बताया, हनुमान जी को बताया, भरत जी, लखन लाल जी, शत्रुघ्न को बताया, माण्डवी, उर्मिला, श्रुतिकीर्ति को बताया। इसका बड़ा विस्तार है। सब काम सुरति से होते हैं। थोड़ा लिखाया है। हमने कहा - जैसी आप की इच्छा हो वैसा ही हमैं मंजूर है। 

३०६. राधा लोहारिन काशी वासी शंकर जी को नेम से (नियम से) सिर्फ नहाकर जल चढ़ाती थी। एक दिन शंकर जी प्रकट हो गये। कहा - मांग क्या चाहती है। तो उसने कहा - कृष्ण भगवान की भक्ति। तो कहा - रैदास जी रामानन्द जी के शिष्य कृष्ण भक्त हैं। धर्म राज के अंश है। उनसे दीक्षा लो। तुझे सब प्राप्त हो जावेगा। तब मैं रैदास के पास गई, दंडवत किया और शंकर जी का हाल बताया। रैदास जी ने दीक्षा दी। जप शुरू कर दिया। शंकर जी को जल नेम से चढ़ाती रही। दो माह बाद हमारे पट खुल गये। नाम की प्राप्ती, रूप की प्राप्ती, परकाश की, लय की, शून्य समाधि की। सब देवता, सिद्ध संत दर्शन देने लगे। हर शै से महामंत्र ररंकार की धुनी होने लगी, शुभ लोकों से तार (पहुँचने के दिव्य साधन) आने लगे। (देवताओं के घर दिव्य भोजन को जाने लगी)। कुण्डलनी जग गई, छइऊ चक्कर चलने लगे। सातों कमल खिल गये। भांति-भांति की सुगन्ध (नासिका के) दोनों स्वरों से आने लगी। अनहद बाजा बजने लगे। घट में अमृत का पान होने लगा। फिर शंकर जी प्रकट होकर हृदय से लगा लिया, और पारवती जी ने दिव्य भोजन दिया। और शंकर जी ने पारवती जी ने एक-एक हाथ पकड़ कर अजर-अमर कर दिया। बहुत विस्तार है, थोड़ा लिखा है। 

३०७. तुम लिखते ऐसा हो - मालूम होता है ब्रह्मज्ञान का सब संागोपांग तुम्हारे पासै है। संसार में जिसको जरूरत होती है (हमसे) मिलता है और करते कुछ नहीं। मन में अटल विश्वास नहीं है। अगर विश्वास होता तो चारों पदार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) मिल गये होते। तुम्हारे ग्रह भी बाधक हैं। वे करने नहीं देते। अगर उनका यथा शक्ति हक मिल गया होता, तो जल्द काम हो जाता। हमें भगवती जी ने हुकुम दिया है - जप, पाठ, पूजन, कीर्तन, दान, सेवा धर्म बता दिया करो। जो मन लगाकर करेगा, उसका काम हो जावेगा। बिना मन लगे कोई काम नहीं होता, चाहे अच्छा हो या खराब हो - उसका फल जीव को मिलता है।