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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

उठाय के उर प्रभु लीन लगाय। निरखि सीता औ लछिमन भाय॥

कहैं प्रभु पार उतारो भाय। सुनै केवट अति मन हर्षाय।६०॥

 

कहे केवट सुनिये रघुराय। धुवावो चरन भक्त सुखदाय॥

धोय मैं चरन लेंव जब भाय। तुरत ही पार करौं सुख पाय॥

कहैं प्रभु धोवो जलदी भाय। सुनत ही लावै जल हर्षाय॥

कठौता कच्छप पीठि क भाय। नुरखि किरपा निधि मन मुसुकाय॥

संग में सीता लछिमन भाय। न बोलैं मन ही मन सकुचाय।७०।

 

बढ़ावैं पग तब श्री रघुराय। धोय ले केवट प्रेम से भाय।

धोवावैं सिया लखन सुखदाय। छकै चरणोदक हिय हर्षाय॥

चढ़ावै पार तुरत लै जाय। कहैं प्रभु उतराई ले भाय॥

निकारैं मुंदरी सिय सुखदाय। दाहिने कर से मन हर्षाय॥

हंसै औ चरनन में परि जाय। नहीं कछु लेहौं सब कछु पाय।८०।

 

सुनैं यह प्रेम बचन रघुराय। चितै सीता औ लछिमन भाय॥

कहैं प्रभु तुम्हैं दीन हम भाय। रिधि सिधि सम्पति गृह भरि जाय॥

रहौ जब तक तुम जग में भाय। करो सुख सदा मगन गुन गाय॥

अन्त में ऐहौ मम ढिग भाय। सिंहासन चढ़ि सुन्दर सुखदाय॥

पहुँचिहैं चित्रकूट जब जाय। मुदित मुनि नर नारी बन राय।९०।

 

फूल फल बे रितु के फरि जाँय। बिपिन की शोभा कही न जाय॥

मनो ऋतुराज मदन हर्षाय। कीन है बास वहीं पर भाय॥

जाइहैं मिलन भरथ सुखदाय। अवध से चित्रकूट को धाय॥

सहित पुरवासिन संग सब माय। शत्रुहन गुरु वशिष्ठ सुखदाय॥

पहुँचि जब भरथ राम ढिग जाँय। उठैं प्रभु भेटैं मन हर्षाय।१००।

 

शत्रुहन को भेटैं रघुराय। गुरु के चरन परैं हर्षाय॥

मिलैं सब मातन को सुखदाय। अवध के नर नारिन हर्षाय॥

राम सब के उर गये समाय। हरयौ सब सोच मुदित सब भाय॥

भरथ औ लखन शत्रुहन भाय। मिले उर में नहिं प्रेम समाय॥

भरथ शत्रुहन दोउ सुखदाय। परैं सीता के चरनन धाय।११०।

 

उठावैं सिया लेंय उर लाय। भये अति प्रेम विवश दोउ भाय॥

मिलैं श्री वशिष्ठ को सिय जाय। परैं चरनन में हिय हर्षाय॥

गुरु आशीष देंय तब भाय। रहौ सिय सदा सोहागिन जाय॥

मिलैं फिरि सब सासुन सिय धाय। परैं चरनन में अति हर्षाय॥

मिलैं तीनों बहनैं अस भाय। मानो एकै में प्रगटीं भाय।१२०।

 

पुरी के नर नारिन हर्षाय। मिलैं क्षण ही भर में सुखदाय॥

लखन श्री गुरु व मातन धाय। मिलैं पुर नर नारिन हर्षाय॥

कहैं कछु भरत बचन मुद दाय। राम हंसि भरतै दें समुझाय॥

सुनो ज्ञानी विज्ञानी भाय। प्रीति हम हीं तुमरी लखि पाय॥

न जानैं बिधि हरि हर अंसाय। नहीं मन बानी वँह पर जाय।१३०।

 

प्रेम क पन्थ बड़ा है भाय। बसे हो मेरे उर सुखदाय॥

सम्हारो निज स्वरूप को भाय। कहीं कोइ दूसर परत देखाय॥

जनम जो तुमरो होत न भाय। पाप से मही जात गरुआय॥

जाय के राज सम्हारो जाय। अवधि बीते हम आउब भाय॥

सुनैं यह बचन राम के भाय। भरथ जी परैं चरनन में धाय।१४०।

 

राम कर गहि भरथहिं उर लाय। मिलैं फिरि प्रेम बढ़ै अति भाय॥

पिघिल पाथर ऐसा ह्वै जाय। बनैं तँह चरन चिन्ह सुखदाय॥

बनै तँह चरन चिन्ह सुखदाय। देहिं प्रभु चरन पादुका लाय॥

भरथ शिर पर धरि लें हर्षाय। आय कर नन्दिग्राम पधराय॥

करैं पूजन तन मन चित्तलाय। सम्हारैं राज काज सुखदाय।१५०।

 

जारी........