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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

पवन से फहर फहर फहराय। बना मंदिर लाले पथराय॥

मोहारा यकइस ता में भाय। झरोखा दस चहुँ ओर देखाय॥

हवा खुब भीतर आवै जाय। सोबरन के दरवाजा भाय॥

केंवारा चाँदी के चमकाय। कोस ढाई के गिर्द में भाय।४३३०।

 

गोल चहुँ दिशि ते भवन सोहाय। लिखा श्री काली नाम देखाय॥

भवन के भीतर बाहेर भाय। बना पैकरमा चहुँ तरफ़ाय॥

चहुँ दिशि दर गोले सुखदाय। उँचाई लखत शीश चकराय॥

भवन अति सुन्दर मानौ भाय। भवन के दर जो यकइस भाय॥

बराबर इनके हैं सुखदाय। पुरी भर के सब नित प्रति आय।४३४०।

 

करत हैं दर्शन प्रेम लगाय। साल भर में दुइ दिन हर्षाय॥

दर्श हित कुम्भकर्ण तहँ जाय। मूर्ति काले पाषाण कि भाय॥

हाथ चौदह ऊँची सुखदाय। बैठि पच्छिम मुख मठ में भाय॥

लगाय वीरासन तहँ माय। भुजा हैं सौ ता में सुखदाय॥

बने खप्पर पचास भुज भाय। पचास में असि को दीन बनाय।४३५०।

 

धन्य विशकर्मा की लीलाय। जड़ा मस्तक में हीरा भाय॥

लखत ही नैन जाँय चौंधाय। बने सब वस्त्र मूर्ति में भाय॥

तैल मृग मद युत लागै आय। भाल में तैल सिंदूर मिलाय॥

लगै नित देखत ही बनि आय। जीह मुख लाली बाहेर भाय॥

लटकती देखि के होश उड़ाय। जलैं बहु दिया राति दिन भाय।४३६०।

 

गऊ घृत और कपूर मिलाय। मणी ताखेन में धरी देखाय॥

राति में दुति अति जावै छाय। भोग नाना बिधि के तहँ लाय॥

लगावैं पुर वासी नित आय। रचा मय दानव लंक बनाय॥

नहीं कमती कोइ चीज़ कि भाय। भरी सब रिद्धि सिद्धि सुखदाय॥

खाय जा के जो मन में आय। नाग पुरी इन्द्र पुरी शरमाय।४३७०।

 

बनी ऐसी सुन्दर सुखदाय। आरती अपनी अपनी लाय॥

करैं पुरवासी नित हर्षाय। बैठि तहँ मेघनाद हर्षाय॥

करावै यज्ञ प्रेम से भाय। लख्यौ यह भालु कपिन तहँ जाय॥

लीन सब मातु को शीश नवाय। सरोवर में पहुँचैं सब धाय॥

भरय्यौ मुख में जल जो कछु आय। जाय तहँ ऊपर ते मूँह बाय।४३८०।

 

दीन जल छोड़ि हवन में भाय। निशाचर ऊपर ताकैं भाय॥

लखै संग मेघनाद रिसिआय। कहै इन सब को मारो धाय॥

यज्ञ यह भ्रष्ट कीन यहँ आय। तयारी करो युद्ध हित भाय॥

चलो इन सब को देंय नशाय। वाद्य सब युद्ध के देंय बजाय॥

सेन सुनतै तयार ह्वै जाय। चलैं सब क्रोधातुर ह्वै धाय।४३९०।

 

जहाँ पर मुर्चा बन्दी आय। करै घननाद गरजना भाय॥

शब्द द्वै योजन तक मँड़राय। राम तब कहैं लषण सुखदाय॥

जाव लै कटक लड़न हित भाय। मारिहौ अब की तुम लघु भाय॥

आयगा समय कहाँ भगि जाय। सुनैं यह बैन लखन वीराय॥

परैं चरनन में प्रभु के धाय। राम शिर पर कर देंय फिराय।४४००।

 

लखन उठि धनुष बाण लै धाय। चलै कपि ऋक्ष कपी सेनाय॥

एक से एक महा सुभटाय। लड़ाई ठनै तहाँ पर भाय॥

दोऊ दिशि हा हा कार सुनाय। ऋक्ष कपि पकड़ि राक्षसन भाय॥

मही पर पटकैं देंय बहाय। मृतक जेहि निशिचर के लगि जाय॥

गिरै सेना में होश न भाय। लखै घननाद अती रिसिआय।४४१०।

 

उठावै अग्नि बाण दुखदाय। कहै सेना सब देऊँ जलाय॥

लषन का करैं हमारो भाय। चलावै बाण अगिनि लगि जाय॥

अनी सब तितिर बितिर ह्वै जाय। लखन जल बाण को देंय चलाय॥

शांति सब पावक तहँ ह्वै जाय। चलैं बजरंग क्रोध करि धाय॥

जारी........