॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
मार ही मार क शब्द सुनाय। आवते नीचे को जब भाय॥
धरनि पग एक हाथ धंसि जाय। आयकर पृथ्वी जी मुददाय॥
कहैं श्री राम से बचन सुनाय। कृपानिधिं इनहिं देउ समुझाय॥
सहायक मेरे सब घबड़ाँय। लगत सब के तन धक्का जाय।१२९०।
काँपि जाते तन मन घबराय। हमारे तन सब बोझा आय॥
आप की किरपा ते थमि जाय। नहीं तो हमैं न ताकति भाय॥
कहौं कर जोरि के सत्य सुनाय। जगत हित लीला श्री रघुराय॥
करत हौ कौन कभी कहि पाय। बनाये आपै के सब भाय॥
समाये हो सब में सुखदाय। जानकी जगत की मातु कहाय।१३००।
पिता प्रभु आप सबै गुन गाय। अगोचर गोचर हौ सुखदाय़॥
भक्त हित नाना रूप बनाय। आप की दया से सुर मुनि भाय।
मान पायो जग में यश छाय। मातु प्रगटीं मिथिला पुर आय॥
सिंहासन मेरे शिर सुखदाय। पूर बारह महिना रघुराय॥
कीन सेवकाई जो बनि आय। मुनिन के रुधिर से घट भरवाय।१३१०।
दीन रावन तहँ पर गड़वाय। आपके नाम की महिमा जाय।
मातु के देखि के दुख उर आय। भईं परवेश उसी में माय।
बनीं सरगुन मूरति सुखदाय।चलायो रानी राजा आय॥
हलै परजा के कारन धाय। पूर्व से पश्चिम मुख हल आय॥
लग्यौ हल का घट लोहा भाय। फूटि घट प्रगटीं ताते माय।१३२०।
रूप की शोभा को कहि पाय। सामने नजर नहीं ठहराय॥
खड़े कर जोरे रानी राय। देव तहँ पहुँचै तुरतै धाय॥
आरती करैं पुष्प बरषाय। करैं अस्तुति तन मन हर्षाय॥
तेज तब खींचि लेंय उरमाय। होय तब दरशन अति सुखदाय॥
करैं दंडवत सबै गुन गाय। कहैं धन्य जनक सुनयना भाय।१३३०।
कीन तप ताको फल यह आय। जगत हित मातु लीन प्रगटाय॥
बड़े परतापी दोउ सुखदाय। बिष्णु तब लियो सिंहासन धाय॥
मेरे शिर पर था रहा सोहाय। चले लै जनक भवन समुदाय॥
देव सब संग चलै हर्षाय। सुनयना जनक मनै मन भाय॥
खुशी अति मख से बोलि न जाय। भई अति भीड़ जनक गृह आय।१३४०।
नगर में हाल गयो यह छाय। कह्यौ बिधि हरि हर मन हर्षाय॥
जानकी नाम मातु को भाय। खड़े तहँ सुरपति मन हर्षाय॥
चंवर औ छत्र लिये पंखाय। मातु सब सुरन से कह्यौ सुनाय॥
जाव गृह गृह अब तुम सब धाय। प्रगट श्री अवध में भे मुददाय॥
एक महीना बीते पर हम आय। काम तुम सब हो मन भाय।१३५०।
रहौ निर्भय प्रभु को गुन गाय। सुनैं यह बैन मातु के भाय॥
सुरन के हर्ष न हृदय समाय। चले तन मन से शीश नवाय॥
जोरि कर सूरति हिय पधराय। कियो माता तब रोदन भाय॥
भुलायो माया करि पितु माय। खेलावैं चुपकावैं पितु माय॥
घरी भर रोवैं नहीं चुपाय। आप ही आप शाँत हों माय।१३६०।
नगर नर नारी गृह गृह जाँय। नार को प्रगट्य्यौ जानकी माय॥
जगत मर्य्यादा के हित भाय। अयोध्या देवी पहुँची जाय॥
रूप धनुकुनि का लीन बनाय। छीनि कै नार को गईं हर्षाय॥
जनक दियो मणि पट भूषण लाय। जाय दै दीन जनक पुर भाय॥
रहै जो धनुकुनि जनक प्रजाय। कहै धनुकुनि मात सुखदाय।१३७०।
कहाँ ते आईं तुम बतलाय। न कोई चीन्ह न परिचय माय॥
आप पट मणि भूषण दियो आय। कहैं श्री अवध पुरी सुखदाय॥
जनक गृह प्रगटीं जगत की माय। नार हम छीनेन उनको आय॥
रूप हम तुमरो लीन बनाय। न जान्यो वहँ पर रानी राय॥
जारी........