॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
हमारे ईश्वर तुम सुखदाय। इसी से रामेश्वर मैं भाय॥
धरौं यह नाम बड़ा मुददाय। हमारे पूर्वज भयो जो भाय॥
पूजते थे तुम को हर्षाय। आप तो भोलानाथ कहाय॥
दया के सागर हौ सुखदाय। नहीं तनकौ परदा है भाय।१६७०।
बसे हौ मम हिरदय सुखदाय। कहैं शिव बार बार हर्षाय॥
किह्यौ तुमरे मन में जो आय। करत हौ भूतल प लीलाय॥
कहैं कछु ताते हमहूँ भाय। नहीं तो कौन तुम्हैं लखि पाय॥
देव मुनि ध्यान समाधि लगाय। धरत हौ भक्तन हित तन आय॥
निरखि कै शोभा हृदय समाय। आपके सबै अंश कहवाय।१६८०।
बड़ाई आपै देत हौ भाय। राव को रंक करौ छिन भाय॥
रंक को राव न देर लगाय। नाम परताप तुम्हारो भाय॥
रहे सुर मुनि तन मन हर्षाय। बड़ेन का काम यही है भाय॥
आप छोटे बने और बड़ाय। लिह्यौ हरि रावन को बुलवाय॥
और सीता माता सुखदाय। बड़ा मम भक्त है रावन राय।१६९०।
करावै स्थापन सुखदाय। वेद की कृत्य जौन कछु आय॥
जानता सब रावण है भाय। आइहै खुशी से रावण धाय॥
प्रेम उर में अति नहीं समाय। आइहैं संग जानकी माय॥
प्रतिष्ठा बाद फेरि फिरि जाँय। बिजय करि चलो अवध हर्षाय॥
संग लै चलो जानकी माय। बात इतनी कहि हर गिरजाय।१७००।
होंय अन्तर वँह ते तब भाय। कहैं प्रभु सुनिये लछिमन भाय॥
लै आओ रावण संग सीताय। बुलाये और किसी के भाय॥
न आवै मानो मन हर्षाय। भक्त शिव गिरिजा का है भाय॥
फेरि ब्राह्मण शरीर को पाय। दीन बनिकै तुम जाओ भाय॥
किहेव परनाम दोऊ कर लाय। धनुष औ बान को कान न भाय।१७१०।
खालि ही हाथ जाओ तुम धाय। सुनैं यह बचन लखन हर्षाय॥
चलैं शिर चरनन धरि सुख पाय। पवन सुत लक्षिमन के ढिग जाय॥
कहैं तन मन ते अति हर्षाय। प्रथम मिलि लिहेव बिभीषण जाय॥
संग में जावैंगे वे भाय। भक्त हैं शान्त शील सुखदाय॥
प्रभू का भजन करैं चितलाय। शुकुल स्फटिक क गृह हैं भाय।१७२०।
देखिकै नैन जाँय चौधांय। खुदे अक्षर रंग भरा है भाय॥
कीन यह लीला विश्वकर्माय। राम के नाम में चहुँ दिश भाय॥
भरा है लाल रंग सुखदाय। वहाँ बहु तुलसी के बृक्षाय॥
मनोहर हरे हरे सुखदाय। मुहारा तीनि बने हैं भाय॥
पूर्व पश्चिम उत्तर सुखदाय। वही गृह उनका जान्यौ भाय।१७३०।
और गृह रंग रंग परैं दिखाय। पुरी ढिग लछिमन पहुँचैं जाँय॥
लिखा तँह नाके नाके भाय। जहाँ जो जाना चाहै भाय॥
वहाँ को चला जाय पढ़ि पाय। गई रावण गृह सन्तर भाय॥
मध्य लंका में भवन सोहाय। गड़ा ऊपर झण्डा फहराय॥
लाल रंग रेशम शोभा छाय। कसीदा सोने तार क भाय।१७४०।
बना सुन्दर ता में चमकाय। लिखा दिग्बिजयी रावण भाय॥
नागपुर सुर पुर नर पुरजाय। भवन के दक्षिण दिशि पर भाय॥
बिभीषण का गृह परत दिखाय। पढ़ैं औ चलैं लखन सुखदाय॥
बिभीषण के गृह पहूचैं जांय। बिभीषण बैठ तख्त पर भाय॥
रहे मन राम नाम को ध्याय। देखि लछिमन को हिय हर्षाय।१७५०।
मिलैं चट उर में उर को लाय। कहैं सब हाल लखन समुझाय॥
बिभीषण सुनैं ध्यान दै भाय। बिभीषण कहैं सुनो सुखदाय॥
कार्य प्रभु किरपा सब बनि जाय। करौ जल पान कृपा करि भाय॥
दूध फल मेवा लीजै पाय। वस्तु सब आपकी कृपा भराय॥
जारी........