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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

बिकलता सब की मिटि गई भाय। पवन सुत की सब करतव आय।३६६०।

 

श्री गुरु अपने भवन को जाँय। बैठि जाँय शान्त चित्त हर्षाय॥

पवन सुत पहुँचि जाँय कटकाय। धरैं पर्वत को तहँ पर भाय॥

आय प्रभु के चरनन परि जाँय। प्रभु हंसि उर में लेंय लगाय॥

कहैं हनुमान सुनो सुखदाय। लता नहि चीन्हेन गिरि लै आय॥

अवध के ऊपर निकसेन आय। शब्द सुनि भरत लख्यो तहँ धाय।३६७०।

 

बाण एक थोथा दीन चलाय। गिरेन तुरतै तहँ हम महि जाय॥

पवन ने पर्वत रोक्यो धाय। न आयो नीचे वह सुखदाय॥

आप का नाम मेरे मुख आय। भरत सुनि तुरतै पहुँचैं धाय॥

निरखि मोहिं उर में लीन लगाय। मिट्यौ सब दुःख हर्ष तन छाय॥

कह्यौ हम बाण पै देव पठाय। देर नहिं लागै सुनिये भाय।३६८०।

 

कहेन हम कृपा करो सुखदाय। जाँय हम अब हीं गिरि लै धाय॥

बड़े बलवान तेजसी भाय। भरत यश कौन सकै मुख गाय॥

संदेशा अवध में दीन पठाय। शत्रुहन गये गुरु ढिग धाय॥

कहैं प्रभु सुनो वीर सुखदाय। भरत मम प्राण के प्राण हैं भाय॥

कहैं हरि श्री सुखेन सुखदाय। चीन्हिये लता आप गिरि जाय।३६९०।

 

लता को खोजि सुखेन लै आँय। पहुँचि लछिमन के ढिग को जाँय॥

नासिका के सन्मुख मलि भाय। धरैं अरु कछु छाती पर लाय॥

फेरि मलि मुख में छोड़ैं भाय। लखन उठि बैठैं देर न लाय॥

शब्द तहँ जय जयकार सुनाय। सुखेन औ पवन तनय यश गाय॥

लखन ते कहैं राम सुखदाय। गोद में लिहे बैठि कटकाय।३७००।

 

घाव उर में जो लागेव भाय। दवा से तुरत पूरिगो आय॥

दर्द कछु भीतर तो नहिं भाय। देव मोहिं अब हीं सब बतलाय॥

वैद्य यह बड़े सुखेन हैं भाय। आय के तुमको दीन जिलाय॥

कहैं लछिमन सुनिये सुखदाय। हमारे उर कछु नहिं पिराय॥

मातु के पास गयन हम भाय। बाटिका अशोक में सुख पाय।३७१०।

 

मातु मोहिं गोद में लीन बिठाय। सोय हम गयन वहीं सुखदाय॥

नींद जागेन जस हम भाय। कहेन माता से बचन सुनाय॥

जाव अब हम प्रभु के ढिग भाय। भई कछु देर नींद गइ आय॥

कह्यो माता जाओ हर्षाय। चरन पर परि यँह पहुँचेन आय॥

यही हम जानित दीन बताय। आपसे कछु छिपा नहिं भाय।३७२०।

 

कहैं सुग्रीव से प्रभु सुखदाय। सुखेन को भेंट देव तुम लाय॥

रत्न का भरा थार जो भाय। दीन मोहिं भेंट उदधि जो लाय॥

सुनैं सुग्रीव लै आवैं धाय। धरैं प्रभु के आगे हर्षाय॥

सुखेन को तब प्रभु देंय गहाय। हर्ष से लें सुखेन सुखदाय॥

कहैं हरि तुम से उऋण न भाय। जिलायो मम भाई सुखदाय।३७३०।

 

देंय आशिष हम तुमको भाय। रहौ ब्रह्मा के दिन भार जाय॥

बिभीषण औ तुम संघै भाय। आइहौ मेरे पुर हर्षाय॥

चरन में परि सुखेन तहँ जाँय। उठैं तब हरि उर लेंय लगाय॥

कहैं हरि भवन में बैठो जाय। भवन को लंक में देंय धराय॥

चलैं तब सुखेन भवन को धाय। पहुँच के बैठैं सुख से जाय।३७४०।

 

शरासन बाण लेंय रघुराय। चढ़ावैं धनुष हिये हर्षाय॥

बाण एक भवन को देंय चलाय। भवन लै चलै बाण सन्नाय॥

सुखेन के भवन को धरि दे जाय। जहाँ से पवन तनय लै आय॥

लौटि कर बाण प्रभु ढिग जाय। फेरि तरकस में बैठै भाय॥

प्रभु फिर गिरि के ऊपर जाँय। देंय आशिष तन मन हर्षाय।३७५०।

 

रहौ तुम हरे भरे सुखदाय। होय नहिं नाशा तुम्हारी भाय॥

जारी........