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२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२२९)


पद:-

नदी के तट पर कबर के अन्दर खाक तख्त पर सोय रहे।

कमर गई झुकि चौथापन भा पाप बीज नित बोय रहे।

दया धर्म के निकट न जाते चोरन संग मन नोय रहे।

अंधे कहैं अन्त चलि नर्क में फटकि फटकि के रोय रहे।


दोहा:-

कल्पन भोगैं नर्क में अंधे कह गोहराय।

नाना जोनिन जन्मते फेरि जगत में आय॥

बिन हरि सुमिरे सुख कहाँ चौरासी चकराँय।

जे सुमिरन में लागिगे अंधे कह हरषाँय।२।