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९०४ ॥ श्री हुलासी शाह जी ॥


पद:-

रसना क्यों करती बदमाशी।

मन दिवान तो को भटकावत कटै न दुख चौरासी।

सुमिरन पाठ कीर्तन में तू रहती सदा उदासी।

झूठ प्रपंच में नेक न थकती करती रहि रहि हासी।

आखिर में जमदूत आयके लेवेंगे जब गांसी।५।

तब कछु बोल न पावेगी तू गले में डालैं फांसी।

प्राण निकारि चलैं लै जमपुर तन कर सत्या नासी।

या से मान ले कहा चेत कर बात कहैं हम खासी।

राम नाम को जान ले प्यारी सब में जो अविनाशी।

दर्शैं तब फिर चरित मनोहर मिलि जाय सुख की रासी।१०।

घट ही में सुर मुनि सब राजें अवध मधुपुरी काशी।

ध्यान समाधि धुनी क्या होवै सुन्दर जोति प्रकाशी।

अनहद बाजा हर दम सुनिये कबहूँ होय न बासी।

सिया राम की झाँकी सन्मुख चमकै क्या चपलासी।

अमृत टपकै गगन से पीजै अनुपम बारह मासी।

सतगुरु करि जियतै भव तरिये कहते शाह हुलासी।१६।


शेर:-

सांचा मिलै सतगुरु जिसे वह जायगा हरि धाम में।

कहते हुलासी शाह नहि फिर फँसेगा जग काम में।१।