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३७४ ॥ श्री घीसा दास जी ॥


पद:-

भजिये पार ब्रह्म रंकारा।

अगम अलेख अपार अकथ औ अकह मिला औ न्यारा।

निराकार अविनाशी निर्गुन जो सब विश्व पसारा।

सो भक्तन संग सरगुन बनिकै संग करत खेलवारा।

सतगुरु करि जप भेद जानि लो नाम खुलै एकतारा।५।

सुर मुनि मिलैं सुनो घट अनहद अमी पियो निशि वारा।

ध्यान परकाश दसा लय जावो कर्म होंय जरि छारा।

नागिन जगै चक्र सब बेधैं कमलन होय पसारा।

उड़ै तरंग मस्त हो तन मन नैन चलै जल धारा।

सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख लो दीदारा।१०।

ईड़ा पिंगला जाय एक ह्वै तब हो सुखमन प्यारा।

विहंग मार्ग से चलि कै प्राणी निज घर देखै सारा।

पांचों तत्वन के रंग दर्शैं सुन्दर हो झलकारा।

चारों तन जब सोधन होवैं टूटै द्वैत केंवारा।

निज तन अमित सामने आवै चमकै रवि शशि तारा।१५।

माया मृत्यु काल सब यमगण लखि कै खांय पछारा।

सूरति शब्द का मारग यह है जियतै करत सँभारा।

नर नारी सुन चेत जाव लगि मानो वचन हमारा।

अन्त त्यागि तन चढ़ सिंहासन बैठो भवन मंझारा।

घीसा दास कहैं तब जान्यो मिट्यो जगत का भारा।२०।