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३६५ ॥ श्री निहाल दास जी ॥

(अवध वासी)
 

चौपाई:-

तन मन भाव भरयो यह मेरे। बाट बहारैं नित्य सवेरे।

चारौं भाई करैं पयाना। राम घाट पैदर अस्नाना।

पाछे कोचवान लिये घोड़ा। श्याम रंग बाँके दुइ जोड़ा।

मञ्जन करि तब होंय सवारा। चलि आवैं लागै नहि वारा।

यही भावना गुरु बतलावा। या को फल निज नैनन पावा।५।

 

जन्म स्थान से राम घाट तक। झाड़ू देवैं हम हंसि चट चट।

राम दास तपसी रहैं जँहवा। श्री सरयू की धारा तहवाँ।

तीन दिवस बीते जहाँ भाई। चौथे दिन सब दरश देखाई।

तब से नित हम दरशन पावा। झाड़ू देन में प्रेम बढ़ावा।

चौबिस बर्ष काम यह कीन्हा। अन्त में हरि पुर बासा लीन्हा।

निहाल दास कहैं यह सेवकाई। प्रेम लगाय करै सुख पाई।११।