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२८६ ॥ श्री सन्त दास जी ॥


पद:-

बेद शास्त्र उपनिषद संहिता औ पुरान सब गाई।

पढ़ि सुनि कै कछु जानि न पायन छस्सै बरस बिताई।

हठ योगिन के संघ मे परिकै आयू लीन बढ़ाई।

संस्कार औ समय आयगो हरि सतगुरुहिं मिलाई।

नाम जपन की बिधि मोहिं सतगुरु सहजै दीन बताई।५।

राम सिया की झाँकी सन्मुख हर दम निरखौ भाई।

एक तार धुनि नाम कि होती मधुर मधुर सुखदाई।

अनहद बाजा बहु बिधि बाजैं मनुवाँ रह्यो लुभाई।

ध्यान समाधि लोक गो देखा फिरि साकेत मँझाई।

पानी पवन और तारागण रवि शशि वहाँ न जाई।१०।

महा प्रकाश बनै नहि बरनत जाय सोई सुख पाई।

अगणित सँत श्याम तन तँह पर बैठे जान न जाई।

राम ब्रह्म ऊँचे सिंहासन शक्ती हृदय समाई।

हरि तँह बोलैं और मौन सब इच्छा गत सो जाई।

तन मन प्रेम लगावै शब्द में दीन बनै बनि जाई।

सन्त दास कहैं सूर वही है जियतै जो लखि पाई।१४।