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१७३ ॥ श्री सुदामा पुरी जी ॥


चौपाई:-

श्याम से प्रेम करो सुख पावो। भूलि जाव तो गोता खावो॥

मानुष का तन सुन्दर दीन्हा। कैसी किरपा तुम पर कीन्हा॥

भोजन बसन कर्म अनुसारा। देवैं सब को करैं संभारा॥

करि मगरूरी रहेव यहां पर। यमन के जूता चलैं तहाँ पर॥

जेहि तन को चिकनावत हौ तुम। दर्पन देखि सिहावत हौ तुम।५।

गीध स्यार कूकुर तेहि खैहैं। बिष्टा बनि मिट्टी मिलि जैहै॥

की धरनी में गाड़ै जाई। कीड़ा परैं और गन्धाई॥

की अग्नी में देंय जलाई। भस्म पवन लै जाय उड़ाई॥

जल के जीव पाय जो लैहैं। जल ही में बिष्टा कर देहैं॥

या से मानो कहा हमारा। भजौ नाम भव होवौ पारा।१०।


सोरठा:-

सतगुरु से लै नाम, भजन करै निष्काम ह्वै।

हर दम राधे श्याम, निरखै तन मन मगन ह्वै।१।


दोहा:-

कहैं सुदामा पुरी अब, चेत करौ बनि जाय।

जो बीती सो बीति गइ, भजिये कृष्ण कन्हाय।२।