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८८ ॥ श्री प्रियवर्त जी ॥


चौपाई:-

ब्राह्मण ह्वै कै ब्रह्म निहारै। क्षत्री ह्वै षट दुष्टन मारै।१।

वैश्य नाम को सौदा करई। शूद्र राम पद हिरदय धरई।२।

प्रियवर्त कहैं सब दुख भागै। चारौं तरैं देर नहि लागै।३।