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॥ श्री बैकुण्ठ वर्णन ॥

सोरठा:-

क्षीर समुद्र में वास, नारायन लक्ष्मी रमन ।

तन मन सदा हुलास, सृष्टि के प्रतिपालन करन ॥१॥

 

चौपाई:-

चरनन की सेवा महरानी। करतीं समय समय मनमानी ॥१॥

आठ भुजा माता के जानौ। देखत बनै कहत नहिं मानौ ॥२॥

अमित रूप छवि कौन बखानी। जगत मातु पितु दोउ सुखदानी ॥३॥

दीन दयाल दया के सागर। करुणामय सब गुण प्रभु आगर ॥४॥

सब जीवन की सुधि हैं लेते। समय समय पर चारा देते ॥५॥

चारि भुजा हरि के हैं छाजत। शंख चक्र गदा पद्म बिराजत ॥६॥

आठ भुजा नारायण जो हैं। सौ भुज नर नारायण सोहैं ॥७॥

 

दोहा:-

पर नारायण के अहैं, सहस भुजा हम जान ।

राम नाम को जानिकै, धरि के देखौ ध्यान ॥१॥

 

चौपाई:-

शुकुल श्याम और गौर रंग हैं। पल पल में बदलत ये रंग हैं ॥१॥

तन मन हरदम अति उमंग है। आनन्दनिधि सब जन तरंग हैं ॥२॥

कहौ कौन विधि कहा न जाई। सूरति सब की हिये समाई ॥३॥

 

दोहा:-

चारिउ स्वामिन के दरश, किह्यो चरन धरि शीश ।

कहत विष्णु भगवान हैं, धन्य धन्य सब ईश ॥१॥

हँसि हँसि चारों दयानिधि, कर गहि लीन उठाय ।

सिर पर फेर्यो हाथ सब, बार बार उर लाय ॥२॥

सो सुख कैसे कहैं हम, प्रेम मगन हैं भाय ।

सुधि बुधि सबै भुलायगै, हर्ष न हृदय समाय ॥३॥

ऐसी कृपा असीम है, सांचा जो होय जाय ।

देखै चरित विचित्र सो, चहै तहां को जाय ॥४॥

शेष क्षीर समुद्र में, जिनकी बनी है सेज ।

शुकुल रूप है सहस फन, कोटिन सूर्य का तेज ॥५॥

हरि किरपा करि तेज को, खींच लेत हैं पास ।

तब पूरण प्रभु दरश हों, बात मानिये खास ॥६॥

 

चौपाई:-

तीनौं बैकुण्ठन प्रभु आसन।

सोहत अति बिचित्र सिंहासन ॥१॥

 

दोहा:-

हरि की इच्छा ते बनत, भांति भांति के यान ।

बरनन ताको को करै, कौन देय परमान ॥१॥

 

चौपाई:-

छिन में पीत वसन सब के तन। छिन में श्वेत वसन हरते मन ॥१॥

यह आनन्द जाय नहिं वरना। बार बार वन्दौं हरि चरना ॥२॥

जिनके हम सब अंश हैं भाई। उनके चरित जान किमि पाई ॥३॥

हम सब हरि के हैं आधीना। हरि की कृपा से कछु कहि दीना ॥४॥

सतगुरु राम नाम मोहि दीना। दीन भाव को उर धरि लीन्हा ॥५॥

प्रेम में भूलि गयन कछु भाई। सो अब तुमको देंय लिखाई ॥६॥

माला गले में सोहैं सबके। समय समय कुँभिलैहैं सबके ॥७॥

एकै फूल एक दिन रहिहै। जानि लेव ऐसे कुँभिलैहैं ॥८॥

जब सब पुण्य क्षीण हों भाई। मृत्युलोक को तब फिर आई ॥९॥

 

दोहा:-

अच्छे कुल में जन्म लै, भजन करै फिर तौन ।

संशय या में तब नहीं, बसै अमरपुर भौन ॥१॥

 

चौपाई:-

क्षीर समुद्र में लक्षमीपति हैं। लक्षमी नहीं तीनि में सति हैं ॥१॥

योजन चारि कोटि का भाई। लम्बा चौड़ा और गोलाई ॥२॥

क्षीर समुद्र अहै सुनु भाई। हमसे लक्ष्मीनिधि बतलाई ॥३॥

शिर पर अनुपम ताज बिराजै। फिर छिन में पगड़ी सिर छाजै॥४॥

टोपी चौकसिया हम देखी। कण्डल मुकुट कि छबि फिर देखी ॥५॥

 

जारी........