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२३२ ॥ श्री राजा नृग जी ॥


दोहा:-

समुझि बूझि कै जगत में करै जौन जो दान ।

धोका कबहूँ होय नहिं, तब होवै कल्यान ॥१॥

एक गऊ के भूल ते, मैं गिरगिट ह्वै भाय ।

सब जन जानत चरित्र यह, पर्यों कूप में जाय ॥२॥

श्री कृष्ण भगवान जी आपु निकारेनि मोहिं ।

तन छूट्यौ हरि पुर गयौं, सांच सुनायों तोहिं ॥३॥

या से जग में आय कै, हरि सुमिरन करि लेय ।

धर्म करै तो समुझि कै, अन्त समय सुख लेय ॥४॥