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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

मिला जो नेग दीन सब आय। जन्म भर सब जन मंगल गाय।१३८०।

 

खाव पहिनौ खरचौ हर्षाय। न होवै घटती बढ़तै जाय॥

मानिये धनुकुनि मम बचनाय। तेल उबटन हम नित प्रति आय॥

लगाउब तीनि बर्ष हर्षाय। रूप तुमरो हम धरि कै आय॥

जाय के करब मातु सेवकाय। निछावर मिली हमैं जो आय॥

दब सब तुम को मन हर्षाय। बर्ष जब चौथी लागी आय।१३९०।

 

जानिहैं तब बिदेह सुखदाय। परैं चरनन में तब लपटाय॥

कहैं तब हम सुन लीजै राय। कुँवर भे दशरथ के गृह आय॥

राम शत्रुहन भरथ लखनाय। नार हम उनका छीनेन राय॥

जानकी जगत मातु सुखदाय। दिब्य संग दिब्य की शोभा आय॥

सुनो राजा तन मन हर्षाय। भई बाणी मोहिं नभते राय।१४००।

 

कीन तैसै हम मन चितलाय। कुँवारी कन्याँ सँग बहु भाय॥

खेलिहैं तब देख्यो सुख पाय। देखि धनुकुनि तब हिय हर्षाय॥

नैन फल पैहो पाप नशाय। मास बैसाख शुक्ल पक्षाय॥

रहा दिन गुरुवार सुखदाय। समय दोपहर जगत की माय॥

भई परगट नौमी तिथि आय। सुने यह बचन मही के भाय।१४१०।

 

कहैं रघुबर भक्तन सुखदाय। सुनो कपि ऋक्ष गणन सब भाय॥

शान्त ह्वै जाव सुनो चितलाय। आवरण पर जिनके सुख पाय॥

रहें हम तुम सब ही हर्षाय। सहायक इनके गे घबराय॥

इन्हैं भी दुख व्याप्यौ कछु जाय। कूदना ऊपर का यह भाय॥

न होवै चलो लंकपर धाय। बन्द उछर व तब होवै भाय।१४२०।

 

जाँय पृथ्वी आवरण समाय। चलैं लै सैना दोनों भाय॥

हाथ धनुबाण लिये हर्षाय। उड़ै तहँ धूरि पगन की भाय॥

अंधेरिया ह्वै गई नहीं देखाय। नाम की सिद्धि रूप बनाय॥

चलै संग मार्ग न भूलै भाय। गर्द गुब्बार कहा नहि जाय॥

सूर्य्य के तेज क पता न भाय। पहुँचि सब उदधि के तटपर जाँय।१४३०।

 

पवन से कहैं राम सुखदाय। बेग तुम आपन खींचो भाय॥

करै स्नान मेरा कटकाय। खींचि लै पवन बेग हर्षाय॥

करैं अस्नान ऋक्ष कपि धाय। लगावैं डुब्बी पैरैं धाय॥

उदधि लहरी नहि लेवै भाय। डफैया खेलैं कपि ऋक्षाय॥

जीव हों दुखी बारि के भाय। लगै नख जिनके तन पर भाय।१४४०।

 

मनहुँ बरछी कोइ दीन चलाय। उदधि तब आवै प्रभु ढिग धाय॥

रूप ब्राह्मण का बृद्ध बनाय। परै चरनन में कहै सुनाय॥

प्राण के प्राण आपु सुखदाय। जीव बहु व्याकुल हैं दुख पाय॥

फटकते इधर उधर मूँह बाय। कृपा करि लीजै सबै बोलाय॥

प्राण उन सबके तो बचि जाँय। रोज़ हम लहरिन दें नहवाय।१४५०।

 

न पेलैं भीतर हे सुखदाय। तरंगैं बन्द किहेन रघुराय॥

रहै सो कारन देंय बताय। बिचारेन कटक थका है भाय॥

शान्ति से लेहैं सबै नहाय। सुनैं यह बचन उदधि के भाय॥

कहैं लक्षिमन ते श्री सुखदाय। कहौ सब से तुम हाँक सुनाय॥

निकसि आवैं जलदी सब भाय। सुनत ही निकसि के आवैं धाय।१४६०।

 

बैठि जाँय सब तन मन हर्षाय। करैं हरि सुमिरन चित्त लगाय॥

खेल देखैं नाना बिधि भाय। जाँय अस्नान करन दोउ भाय॥

चलैं संग उदधि रूप बृद्धाय। चरन परसैं जस जल रघुराय॥

सबै जीवन के दुख हरि जाँय। घाव कोइ तन में नहिं रहि जाय॥

बढ़े बल दूना हरि किरपाय। करैं अस्नान दीन सुखदाय।१४७०।

 

लखन तब मलैं अंग हर्षाय। नहाय के निकसैं दोनों भाय॥

जारी........