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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

करै तँह शैन शान्त चित लाय। राम छबि नैनन गई समाय॥

मन्दोदरि चलै मनै हर्षाय। करै आराम भवन में जाय॥

निरखि छबि रही न निद्रा आय। भयो तब प्रात काल सुखदाय॥

दशानन नित्य क्रिया करि आय। शम्भु पूजन करि प्रेम लगाय॥

भोग मेवा फल दूध लगाय। पाय परसाद चल्यौ हर्षाय।२७२०।

 

गयो दरबार में बैठय्यौ जाय। बैठ तहँ बहुत बीर हैं आय॥

बीरता पवन तनय की भाय। ख्याल करि मन ही मन अकुलाय॥

उदासी चेहरन ऊपर छाय। श्री हत भई कहौं का भाय॥

कहै रावन बीरौं सुखदाय। शोच तुम्हरे मन में क्या भाय॥

राति भर जागे हो क्या भाय। रुखाई मूँह पर परत देखाय।२७३०।

 

न वौलैं कोई तहँ कछु भाय। लीन शिर नीचे को लटकाय॥

बिभीषण उसी समय गे आय। जाय के निकट चरण शिर नाय॥

कहै रावन बैठो सुखदाय। बिभीषण बैठ पास में जाय॥

कहै रावन सुनिये मम भाय। आज सब सभा सुस्त देखलाय॥

न बोलैं कोई मम समुहाय। बिभीषण कहैं सुनौ सुखदाय।२७४०।

 

शंकइन सबके गई समाय। सुनावौं आप को सुनिये भाय॥

फूँकिगे लंका जिन दूताय। लड़ै तिनसे को समुहे भाय॥

चली कछु किसी कि नहीं उपाय। एक यह सोच सबन जिय छाय॥

दूसरे अंगद आये भाय। सभी बिच पग को दीन अड़ाय॥

उठे तब बड़े बड़े बीराय। हट्यौ पग नहीं गये खिसिआय।२७५०।

 

समायो डर इनके उर भाय। हारि हिम्मत सब गये हैं राय॥

आपके डर के मारे आय। सभा में बैठे हैं चुपकाय॥

आप ते भागि कहाँ ये जाँय। ठौर इनको कहुँ नहीं है भाय॥

अगर कहुँ भागि के जावैं राय। ढुंढ़ाय के जान से देव मराय॥

मनै मन सब दुखिया पछिताँय। समुझिगे काल गयो नियराय।२७६०।

 

गयो बल तन से आधा भाय। न मानो पूँछि लेव समुझाय॥

दीन हम सत्य सत्य बतलाय। भला अस जग में को है भाय॥

लड़ै जो सन्मुख प्रभु से भाय। लंक में हमैं न कोई देखाय॥

प्रलय पालन उत्पति जो राय। खेल हरि के बाँये कर आय॥

बिष्णु शिव ब्रह्मा औ शेषाय। जपैं निशि बासर हरि को भाय।२७७०।

 

नाम परताप से प्रभु के राय। आप को दीन शम्भु बर आय॥

लड़ौ जो प्रभु से बनै न भाय। शरनि में चलौ कार्य्य बनि जाय॥

शरनि जो कोई प्रभु कि जाय। न त्यागैं दीन बन्धु रखुराय॥

मातु को रथ पर लेहु चढ़ाय। चलैं हम आप के संग में भाय॥

करैं दर्शन फिर विनय सुनाय। सुनत ही हरि लेवैं अपनाय।२७८०।

 

राज्य फिर करौ अचल सुख पाय। प्रभु की शरनि क फल मिलि जाय॥

मने मन गुनिरावन अकुलाय। कहै यह जानत कछु नहिं भाय॥

चरण तब रावन दहिन उठाय। चलायो उर पै धीरे जाय॥

गिरे धक्का लगतै लघु भाय। उतानै परे बोलि नहिं जाय॥

कहै रावन वीरों सुखदाय। चारि जन मिलि यहि लेव उठाय।२७९०।

 

हाथ पग एक एक गहि भाय। भवन के द्वार पै धरिये भाय॥

होश जब होवै दिहेव सुनाय। जाय लंका से जहँ मन भाय॥

बिभीषण सुनै न बोलैं भाय। बिचारैं केहि बिधि बाहेर जाँय॥

उठैं तो मारै रावन राय। क्रोध वश कौन सकै समुझाय॥

होय हरि की जस इच्छा भाय। वैस ही करैं कौन गुनि पाय।२८००।

 

बिभीषण मनै रहै समुझाय। आइगे चारि तहाँ योधाय॥

पकरि कै पग फिर लीन उठाय। तुरत लै गे गृह के दर धाय॥

जारी........