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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

भक्त भगवन्त न अन्तर आय। बात हम या में कौन बनाय॥

कहैं प्रभु सुनो लखन चित लाय। भक्त तुम दोनो अति सुखदाय॥

बिभीषण के दरबारी जाँय। घरै अपने जब बदलैं भाय॥

करैं भोजन तन मन हर्षाय। देंय अपनी अबलन बतलाय॥

कहैं कहुँ कह्यौ न यह बचनाय। सुनै रावन तो देय मराय।३२९०।

 

बात जो अपनै में रहि जाय। तौन तो आपै जानै भाय॥

परै जहँ और के कान में जाय। चलै फिरि घटै न बढ़तै जाय॥

दोऊ अबला रावण गृह जाँय़। मन्दोदरि से सब देंय बताय॥

मन्दोदरि सुनै मन हर्षाय। देय दोउ अबलन पट धन लाय॥

खुशी ह्वै अपने गृह दोउ जाय। धरैं धन पट बैठैं हर्षाय।३३००।

 

मन्दोदरि रावन के ढिग जाय। पहुँचि धौरहरा पर सुखदाय॥

चरित रावन को देय सुनाय। सुनै रावन तन मन हर्षाय॥

उतरि शिव मन्दिर में चलि जाय। लेय तहँ मेघनाद बोलवाय॥

कहै सब हाल पुत्र से गाय। हँसै तब मेघनाद योधाय॥

कहै पितु सुनिये मम बचनाय। दोऊ लड़िकन कीन्ह्यौ खेलवाय।३३१०।

 

संग में बानर औ ऋच्छाय। नहीं कोइ बुद्धिमान कटकाय॥

बिभीषण भागि मिल्यौ तहँ जाय। स्वाँग सब मिलि करि लीन बनाय॥

भला ऐसा कहुँ सुने हौ राय। पुत्र नहि भयो पिता कहवाय॥

कहै रावन सुनिये सुखदाय। तयारी करो समर की जाय॥

सुनै औ चलै तुरत उठि धाय। सजावै दल डंका बजवाय।३३२०।

 

चलै रथ पर बैठै हर्षाय। गरद असमान की ओर को जाय॥

कुड़ुक धुम डंका बजतै जाय। शब्द सुनि कहैं बिभीषण राय॥

प्रभू घननाद पहुँचिगा आय। बड़ा है शूरबीर दुखदाय॥

 

और मायावी अति चतुराय। जहाँ जस मौका देखै जाय॥

वहाँ वैसै वह रचत उपाय। सुनो प्रभु सत्य दीन बतलाय।३३३०।

 

कहैं प्रभु सुनो लखन सुखदाय। संग सेना लै देखो जाय॥

लखन सुनि चरनन में परि जाँय। उठैं औ चलैं कटक लै धाय॥

संग में बड़े बड़े योधाय। पवन सुत जाम्वन्त नीलाय॥

नलौ अंगद सुग्रीव सुहाय। मयन्दौ द्विविद गवाक्षौ भाय।

नाम सब के कँह तलक गिनाय। बिभीषण चले संग में भाय।३३४०।

 

फासिला थोड़ा जब रहि जाय। रुकैं दोउ सेना तँह पर भाय॥

क्रोध करि मेघनाद गोहराय। कहै अब संभरो सब हम आय॥

मारि बानर औ ऋच्छन धाय। मसलिहौं हाथन गर्द मिलाय॥

सुनैं कपि ऋच्छ क्रोध उर आय। कूदि के कटक में पहुँचैं जाय॥

पकरि निश्चरन को लेंय उठाय। एक पर एक को पटकैं धाय।३३५०।

 

भूमि पर किसी को देंय गिराय। फेरि उर नखते फारैं भाय॥

चटकने किसी के मारें धाय। किसी पर मुष्टिक देंय चलाय॥

क्रोध लखि मेघनाद को आय। चलावै बाण बड़े दुखदाय॥

बहुत कपि ऋच्छन देय गिराय। परैं मूर्च्छा में बोलि न जाय॥

ऋच्छ कपि निरखि हाल यह भाय। पहुँचि फिर अपनी सेन में जाँय।३३६०।

 

लखन घननाद की होय लड़ाय। देखतै बनै दोऊ सुभटाय॥

बाण से बाण कटैं गिरि जाँय। पास तक पहुँचि सकैं नहिं भाय॥

निशाचर ऋच्छ कपिन ते धाय़। लपटि कै लड़ैं क्रोध तन छाय॥

मुखन ते नोचैं माँस को धाय। गिरैं औ भिरैं न मानैं भाय॥

क्रोध अति लखन के तन में आय। चलावैं बाण कटक बिल्लाय।३३७०।

 

भागि अपनी सेना में जाँय। फटकते परे देखि घबराय॥

जारी........