॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
खेंचि शर भूमि में देय गिराय। बाण प्रभु दूसर देंय चलाय।४६१०।
काटि सब शिर भुज देवै जाय। फेरि शिर भुज तुरतै हरियाय॥
कहै रावण तन नम: शिवाय। प्रगट ह्वै शम्भु राम ढिग जाँय॥
कहैं वाको बरदान सुनाय। शीश यह कोटि बार रघुराय॥
चढ़ाइस हम पर है बलिदाय। दीन आशिष तब हम हर्षाय॥
एक से कोटि क फल मिलि जाय। कटैं या बिधि ते जब सुखदाय।४६२०।
मरै तब रावण आशिष जाय। होंय हर अन्तर भेद बताय॥
प्रभू जानैं कोइ जान न पाय। बाण रघुनाथ के अति बिकटाय॥
काल के काल को देंय नशाय। लागतै शिर भुज चट कटि जाँय॥
देरि नहिं लागै फिर उगि जाँय। भुजा शिर आसमान मंडराँय॥
निरखतै बनै गिनै को भाय। देव मुनि तन मन से रहे ध्याय।४६३०।
हतौ अब बेगि श्री सुखदाय। पूर आशिष शिव को भै भाय॥
कटैं भुज शिर फिर नहिं दिखलाय। मारि कै बाण श्री रघुराय॥
बेधि धड़ टांगैं दीन्हों भाय। गिरै फिर उठै रुँड बलदाय॥
मरै नहिं दोउ दल देखैं भाय। सुरति सीता माता में भाय॥
लगी यह जान्य्यौ श्री रघुराय। बाण नाभी पर छाँड्यौ भाय।४६४०।
लागतै ध्यान गयो बिसराय। गिरत ही धरनि छूटि तन भाय॥
रूप तब मिल्यौ दिब्य सुखदाय। राम सिय राम राम कहि भाय॥
सिंहासन पर बैठ्यौ मुसक्याय। उठा सिंहासन तब सुखदाय॥
देव नभ ते लखि लखि हर्षाय। फूल प्रभु के ऊपर बरसाय॥
बजावैं बाद्य रहै गुण गाय। कटे सब के बंधन रघुराय।४६५०।
करैं अब निर्भय जप पूजाय। पहुँचिगा दशमुख हरिपुर जाय॥
यान ते उतरि परयौ हर्षाय। गयो पितु मातु के ढिग तब धाय॥
निरखि हरि उठि उर में लिये लाय। परसि पितु मातु के चरनन भाय॥
बैठिगा चट आशिष को पाय। दूध तब एक कटोरा भाय॥
पिलायो पीठी पर कर लाय। कह्यौ अब द्वार पाल हो जाय।४६६०।
दोऊ भ्राता मिलि कछु कालाय। रही बाकी एकै शापाय॥
वह मिटि जैहै समय पै आय। उठय्यौ तब दशमुख अति हर्षाय॥
गयो जहँ कुम्भकरण बैठाय। निरखतै उठि लपट्यौ हर्षाय॥
मनो मणि फर्ण कै मिलिगै भाय। पकरि कर से कर दोउ सुखदाय॥
चले फाटक पर पहुँचैं जाय। भये दोऊ द्वार पाल सुखदाय।४६७०।
कहैं जै जै जै त्रिभुवन राय। रहै दुइ द्वारपाल जो भाय॥
गये बैकुण्ठ में बैठे जाय। सिया बर पावक बाण उठाय॥
चलावैं सब निशिचर जरि जाँय। मिलै तन दिब्य सबै सुखदाय॥
चढ़ैं यानन पर अति सुख पाय। पहुँचि जाँय बैकुण्ठै हर्षाय॥
उतरि बैठैं सब हरि गुण गाय। कहैं प्रभु सुनो बिभीषण राय।४६८०।
चलो सीता ढिग लषण लिवाय। चलैं प्रभु लषण बिभीषण राय॥
पहुँचि जाँय बन अशोक में आय। परै सिय चरण राम के भाय॥
देंय आशिष प्रभु तन पुलकाय। बिभीषण लषण सिया के जाय॥
परैं चरनन तन मन हर्षाय। सिया कर सिर पर देंय फिराय॥
कहैं प्रभु चरनन प्रीति दृढ़ाय। यान बहु हरि पुर से मंगवाय।४६९०।
कहैं प्रभु बैठैं कपि ऋक्षाय। बैठि जाँय ऋक्ष कपी हर्षाय॥
बिभीषण लषण संग में भाय। राम सिया एक यान में आय॥
बैठि जाँय शोभा कही न जाय। उठैं तब यान चलैं सर्राय॥
पहुँचि जाँय अवधपुरी में आय। लखैं पुरवासी यह सुख भाय॥
बजै घर घर में अनन्द बधाय। उतरि यानन ते कपि ऋक्षाय।४७००।
परैं गुरु वशिष्ठ के पग धाय। राम सिया लषण बिभीषण राय॥
जारी........